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विशेष – अपगतवेदी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में २७, २६, २५, २३ र २२ इन पांच स्थानों को छोड़कर शेष प्रष्टादश स्थान कहे हैं। नपुंसकवेदी के सत्ताईस, छबीस, पच्चीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, बींस, सोमोर द्वाद्वाथ होते हैं । स्रीवेदी के नपुंसकवेदी से उन्नीस और एकादश प्रकृतिक दो संक्रम स्थान अधिक होने से उनकी संख्या एकादश कही है । स्त्रीवेदी के एकादश स्थानों के सिवाय अष्टादश और दश प्रकृतिक दो और स्थान पुरुषवेदी के होने से वहां त्रयोदश स्थान कहे हैं । कषाय मार्गणा
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कोहादी उबजोगे चदुसु कसाए सु चाणुपुवीए । सोलस य ऊणवीसा तेवीसा चेव तेवीसा ॥ ४६ ॥
क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप चार कषायों में उपयुक्त जीवों के क्रमशः सालह, उन्नीस, तेईस, तेईस स्थान होते हैं ।
कोकषाय में सत्ताईस, छवीस, पच्चीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, बोस, उन्नीस, अठारह, चौदह, त्रयोदश, द्वादश, एकादश, दस, चार और तीन ये सोलह संक्रम स्थान हैं ।
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मानकषायी में पूर्वोक्त सोलह स्थानों के सिवाय नव, आठ तथा दो इन तीन स्थानों को जोड़ने से उशीस स्थान कहे गए हैं। माया तथा लोभकषायी जीवों में प्रत्येक के तेबीस, तेवीस स्थान कहे हैं ।
कषायी के दो प्रकृतिक स्थान होता है । इसका कारण यह है कि चौबीस प्रकृतियों की सत्ता वाले उपशामक जीव के दो प्रकृतिक स्थान पाया जाता है । १
महाराज
१ एत्थ अकसाईसु संकमणद्वाणमेक्कं चेव लब्भदे | चवीससंतकम्मियोवसा मगस्स उवसंतकसायगुणद्वाणम्मि दोहं पयडी ं संकमोवलंभादो (१००८ )
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