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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविष्टिष्ट्र जी महाराज
कितनी उपयोग वर्गणाओं के द्वारा कौनसा स्थान अविरहित और कौनसा स्थान विरहित पाया जाता है ? प्रथम समय में उपयुक्त जीवों के द्वारा तथा इसी प्रकार अंतिम समय में उपयुक्त जीवों के द्वारा स्थानों को जानना चाहिए ।
विशेष - जयधवला टीका में उपरोक्त गाथा - मालिका के विषय में इस प्रकार प्रकाश डाला गया है " एत्थ गाहासुत्तपरिसमत्तीए ससह मंकविण्णासो किमट्ठ कदो ?" -- यहां गाथासूत्रों के समाप्त होने पर 'सप्त' अंक का विन्यास किस हेतु किया गया है ?
एदाओ सत्त चेव गाहाओ उबजोगणियोगद्दारे पडिबद्धाम्रो ति जाणावण ( १६१५ ) -- ये सात गाथाएं उपयोग अनुयोगद्वार से प्रतिबद्ध हैं, इसके परिज्ञानार्थं यह किया गया है।
चूणिसूत्र में कहा है, "केवचिरं उवजोगो कम्हि कसायम्हि त्ति एदस्स पदस्स श्रत्थो श्रद्धापरिमाणं" - किस कषाय में कितने काल पर्यन्त उपयोग रहता है? इस पद का अर्थं श्रद्धा काल परिमाण है, "श्रद्धा कालो तस्स परिमाणं"
इस पृच्छा के समाधानार्थं यतिवृषभाचार्य कहते हैं- "क्रोधद्धा, माणद्धा, मायद्धा, लोहद्धा जहणियाओ वि उक्कस्सियाम्रो वि तोमुहुत्तं" (१६१५ ) - क्रोध कषाय युक्त उपयोगकाल, मान कषाय युक्त उपयोगकाल, माया कषाय युक्त उपयोग काल तथा लोभ कषाय युक्त उपयोगकाल जघन्य से तथा उत्कृष्ट से अंतमुहूर्त है।
गतियों के निष्क्रमण तथा प्रवेश की अपेक्षा चारों कषायों का जघन्यकाल एक समय भी होता है "गदीसु णिक्खमाणपवेसण एकस भयो होज्ज" ( १६१५ )
'को व केण हिमो' (गाथा ६३ ) किस कषायका उपयोग काल किस कषाय के उपयोग काल से अधिक है, इस द्वितीय पद का अथं कषायों के उपयोगकाल सम्बन्धी अल्पबहुत्व है ।