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( १-५ ' )
जिस अल्पत्व परिपाटी में प्रथम कषाय क्रोध से उपयुक्त जीवों को आदि लेकर अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है, उसे प्रथमादिका श्रेणी कहते हैं । यह देवगति में ही संभव है, कारण मार्गदर्शक वहां अतीकोपाहारी सर्व स्तोक हैं ।
जिस अल्पबहुत्व परिपाटी में अंतिम कषाय लोभ को प्रारंभ कर अल्पबहुत्व का कथन किया गया है, उसे चरमादिका श्रेणी कहते हैं । यह नारकी जीवों में संभव हैं, कारण नरक गति में ही लोभ कषाय से उपयुक्त जीव सर्व स्तोक हैं ।
गाथा में श्रागत 'च' शब्द द्वारा द्वितीयादिका श्रेणी सूचित की गई है। द्वितीयादिका श्रेणी सम्बन्धी अल्पबहुत्व मनुष्यों श्रीर तिर्यंचों की अपेक्षा जानना चाहिये, कारण यह श्रेणी उनमें हो संभव है ।
१ मानकप्राय से उपयुक्त जीवों का प्रवेशनकाल सर्वस्तोक है । क्रोधोपयुक्त जोवों का प्रवेशनकाल विशेषाधिक है । इसी प्रकार माया और लोभ कषायोपयुक्त जीवों का वर्णन है ।
२ यह विशेषाधिक कथन प्रवाह्यमान उपदेश से पल्योपम के संख्यातवें भाग है तथा प्रवाह्यमान उपदेश से प्राचली के प्रसं ख्यातवें भाग है |
इस प्रकार उपयोग अनुयोग द्वार समाप्त हुआ ।
१ कथं पुनः प्रवेशनशब्देन प्रवेशकालो गृहीतुं शक्यत इति नाशंकनीयम् प्रविशत्यस्मिन्काले इति प्रवेशनशब्दस्य व्युत्पादनात् । (१६७३)
२ एसो विसेसो एक्केण उवदेसेण पलिदोवमस्स श्रसंखेज्जदिभागोपडिभागो | पवाइज्जेतेण श्रावलियाए प्रसंखेज्जदिभागो ।