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( १०४) नंतर अन्य स्थान पर एक जीव पूर्वोक्त प्रमाण से अधिक रहता है। तदनंतर असंख्यात लोक प्रमाण स्थानों पर उतने ही जोब रहते हैं । तदनंतर अन्य प्रागे वाले स्थान पर एक जीव पूर्वोक्त प्रमाण से अधिक रहता है । इम प्रकार एक एक जीव के बढ़ने पर ल आवक रहता ९ 'मोगदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज उत्कर्ष से एक कपायोदय स्थान पर प्रावलि के असंख्यातव भागे प्रमाणा त्रस जीव पाये जाते हैं। Y एक कषायोदय स्थान पर उत्कर्ष से जितने जीव होते हैं, उतने ही जीव अन्य स्थान पर पाए जाते हैं । इस प्रकार क्रम असंख्यात लोक प्रमाण कषायोदय स्थानों पर्यन्त है । असंख्यात लोकों के व्यतीत होने पर यवमध्य होता है । अनंतर अन्य स्थान एक जीव से न्यून होता है । इस प्रकार प्रमख्यात लोक प्रमाण स्थान तुल्य जीव वाले हैं। इस प्रकार शेष स्थानों पर भी जीव का अवस्थान ले जाना चाहिए।
यहां स्थावर जीवों के विषय में यवमध्य रचना नहीं कही गई है, क्योंकि उनकी यवमध्य रचना अन्य प्रकार है।
सातवी गाथा के उत्तरार्ध में लिखा है, "पढमपमयोबजुत्तेहि चरिम समए च बोद्धब्वा"-प्रथम समय में उपयुक्त जीवों के द्वारा स्थानों को जानना चाहिए।
यहां ( १ द्वितीयादिका ( २ प्रथमादिका (३) चरमादिका रूप से तीन प्रकार की श्रेणी कही गई हैं। का वाच्यार्थ पंक्ति या अल्पबहुत्व की परिपाटी है-'सेडी पंती अप्याबहुप्र-परिवाडित्ति एयट्टो” (१६७२)
जिस अल्पबहुत्व परिपाटी में मानसंज्ञित दूसरी कपाय से उपयुक्त जीवों को आदि लेकर अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है, उसे द्वितीयादिका श्रेणी कहते हैं । यह मनुष्य और तिर्यञ्चों की अपेक्षा कथन है। इनमें ही मान कषाय से उपयुक्त जीव सबसे कम पाए जाते हैं।