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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
तेरह, बारह ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो, एक मिलाकर पंचदश सत्व-स्थान हैं। ___मोहनीय के बंध स्थान-वाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच चार, तीन, दो और एक मिनाकर दस बंध-स्थान हैं।
मोहनीय के पंचदश मत्व स्थानों के विषय में यह खुलासा किया गया है । दर्शन मोह की तीन प्रकृतियां, चारित्र मोह की सोलह ऋचाय और नव नोकषाय मिलाकर मोहनीय को २८ सत्व प्रकृतियां होती है।
ग़म्यक्त्व प्रकृति की उद्वलना होने पर २७ प्रकृति रुप स्थान होता है । मिश्र प्रकृति की भी उद्वलना होने पर २६ प्रकृति सा स्थान होता है । अनंतानुवंधी चतुष्क की विसंयोजना होने पर २८ - ४ = २४ प्रकृति रुप स्थान होता है। मिथ्यात्व का क्षय होने पर २४ - १ = २३ प्रकृति रुप स्थान होता है । मिश्र का क्षय होने पर २२ प्रकृति रुप स्थान, सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय होने पर २१ प्रकृति रुप स्थान क्षायिक सम्यक्त्वी के पाया जाता है। अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानाबरण कषायाष्टक का क्षय होने से २१-८ = १३ प्रकृति रुप स्थान है । स्त्रीबेद या नपुंसकवेद का क्षय होने पर १२ प्रकृतिक रुप स्थान होता है। स्त्रीवेद या नपुंसकवेद में से शेष बचे वेद का क्षय होने पर ११ प्रकृतिक स्थान होता है । हास्यादि षट्क का क्षय होने पर ११-६ = ५ प्रकृति रुप स्थान आता है । पुरुषवेद के क्षय होने पर ४ प्रकृतिरुप स्थान आता है। संज्वलन क्रोध का क्षय होने पर तीन प्रकृतिक स्थान, संज्वलन मान का क्षय होने पर दो प्रकृतिक स्थान, संज्वलन माया का अभाव होने पर संज्वलन लोभ की सत्ता युक्त एक प्रकृतिक स्थान होता है।
सूक्ष्मसांपराय (सूक्ष्म लोभ) गुण-स्थान में सूक्ष्मलोभ पाया जाता है । यहां भी पूर्ववत् लोभ प्रकृति है । इससे इसको पृथक स्थान नहीं गिना है।