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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
. २ एक समय में जितनी प्रकृतियों को उदीरणा संभव है उतनी प्रकृतियों के समुदाय को प्रकृति-स्थान-उदीरणा कहते हैं । - इसका संदप्तरा अनुयोगद्वारों से वर्णन किया गया है । समुत्कीर्तना से अल्पबहुल्ब पर्यन्त अनुयोग द्वार तथा भुजगार पदनिक्षेप तथा वृद्धि द्वारा वर्णन किया गया है।
__समुत्कीर्तना के स्थान समत्कीर्तना और प्रकृति समु-कीर्तना ये दो भेद हैं । अट्ठाईस प्रकृतिरूप स्थान को प्रादि लेकर गुणस्थान और मार्गणा स्थान के द्वारा इतने प्रकृति स्थान उदयावली के भीतर प्रवेश करते हैं, इस प्रकार की प्ररुपणा स्थान समुत्कीर्तना कही जाती है।
इतनी प्रकृतियों के ग्रहण करने पर यह विवक्षित स्थान उत्पन्न होता है, इस प्रकार के प्रतिपादन को प्रकृति समुत्कोतंना या प्रकृति निर्देश कहते हैं। स्थिति उदीरणा---
गाथा ६० में यह पद पाया है 'को कदमाए दिदीए पदेसगो।' इसकी स्थिति-उदीरणा रूप व्याख्या करना चाहिये।
यह स्थिति-उदोरणा (१) मूलप्रकृति-स्थिति-उदो रणा (२) उत्तर-प्रकृति-स्थिति उदीरणा के भेद से दो प्रकार है । इनका
२ पयडीणं ठाणं पयडिट्ठाणं पयतिसमूहोत्तिभणिदं होई । तस्स उदीरणा पयडिट्ठाणउदीरणा । पयडीणमेक्ककालम्मि जेत्तियाणमुदीरिदु संभवो तेत्तियमेतीणं समुदायो पडिट्ठाण-उदीरणा ति वुत्तं भवदि । तत्थ इमाणि सत्तारसमणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति समुश्कित्तणा जोव अप्पाबहुएत्ति भुजगार-पदणिक्लेव-बड्डी प्रो