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समाधान- जितने जघन्यनिक्षेप हैं और जितनी जघन्य अतिस्थापना है, उतने उदीरणा के अयोग्य स्पर्धक हैं। इससे आगे के समस्त स्पर्धकारमा के अलाप्रपालतिषकाएगजान याम्या है। "जत्तिगो जहण्णगो णिवखेवो जहणिया च अइच्छावना तत्तियाणि"
अनुभाग उदीरणा के ( १) मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा (२) उत्तरप्रकृति अनुभाग उदीरणा ये दो भेद हैं ।
१ मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा का तेईस अनुयोग द्वारों से निरुपण हुआ है। ___ उत्तर प्रकृति अनुभाग उदोरणा के ये चौबीस अनुयोग द्वार हैं । ( १ ) संज्ञा ( २ ) सर्व उदी रणा ( ३ ) नोसर्व उदीरणा ( ४ ) उत्कृष्ट उदीरणा ( ५ ) अनुत्कृष्ट उदीरणा ( ६ ) जघन्य उदीरणा ( ५ ) अजघन्य उदीरणा ( ८ ) सादि उदीरणा (९) अनादि उदीरणा (१०) ध्र व उदीरणा (११) अध्र व उदीरणा (१२) एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व (१३) काल (१४) अन्तर (१५) नाना जीवों को अपेक्षा भंगविचय (१६) भागाभाग (१७) परिमाण (१८) क्षेत्र (१९) स्पर्शन (२०) काल (२१) अंतर (२२) सन्निकर्ष (२३) भाव (२४) अल्पबहुत्व तथा भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इनके द्वारा अनुभाग उदरीणा पर प्रकाश डाला गया है।
उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणा का निरुपण करते हुए चूणि सूत्रकार कहते हैं- 'दुविहा सण्णा घाइसण्णा . टाणसण्णा च' ( १४९१)
__ मंज्ञा के ( १ ) धाति संज्ञा (२) स्थान संज्ञा ये दो भेद हैं।
१ मूलपडि-अणुभागुदीरणाए तत्य इमाणि तेवीसमणियोगहाराणि सण्णा-सव्वुदोरणा जाब अप्पाबहुएत्ति । भुजगारो पदणिक्लेवो वढि उदीरणा चेदि ( १४८० )