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प्राप्त कर कुगति के कारस दुर्सान को प्राप्त करता है। समंतभद्रस्वामी ने ध्यान या समाधि के पूर्व त्याग आवश्यक कहा है। उसके लिए इंद्रिय दमन आवश्यकहिकउसके पूवा करमापूर्णिजीवनावश्यक है। इस कथन का भाव यह है कि सर्व प्रथम जीवन में जीवदया की अवस्थिति श्रावश्यक है। उसके होते हुए भी कार्यसिद्धि के लिये संयम तथा त्यागपूर्ण जीवन चाहिए । दया दम और त्याग के द्वारा समाधि अर्थात् ध्यान की पात्रता आती है। इस पार्षवाणी से उन शंकाकारों का समाधान होता है, जिनका जीवन हीनाचरण युक्त है और जो अपने को ध्यान करने में असमर्थ पाते हैं। जीवन शुद्धि, पूर्वक मार्नासक शुद्धि होती है । तत्पश्चात् ध्यान की बात सोची जा सकती है। महापुरासकार जिनसेन स्वामी ध्यान के विषय में कहते हैं :
यत्कर्मक्षपणे साध्ये साधनं परमं तपः । तत्तध्यायनाह्वयं सम्यगः अनुशास्मि यथाश्रुवम् ॥ ७ ॥
हे राजन् ! जो कर्म क्षपरम रूप साध्य का मुख्य कारण है, ऐसे ध्यान नाम के श्रेष्ठ तपका मैं पागम के अनुसार तुम्हें उपदेश देता हूँ।
स्थिरमध्यवसानं यत्तद्ध्यानं यत्तद्ध्यानं यच्चलाचलम् । सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ॥ ६ ॥
एक ओर चित्त का स्थिर होना ध्यान है। जो चंचलतापूर्ण मनोवृत्ति है, वह अनुप्रेक्षा, चिन्ता अथवा भावना है।
योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तनिग्रहः ।
अंतः संलीनता चेति तत्पर्याया स्मृता चुधैः ॥१२॥ - योग, ध्यान, समाधि, धी का रोध अर्थात् विचारों को रोकना स्वान्त अर्थात् मन का निग्रह तथा अन्तः संलीनता अर्थात् मात्मनिमग्नता ये ध्यान के पर्याय शब्द है, ऐसा बुधमन मानते हैं।
यह जीव अपनी अनादिकालीन दुर्वासना के कारस आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान के कारण अपना दुःखपूर्ण मलिन भविष्य बनाता चला श्रा रहा है। उसे अपनी मनोवृत्ति को उर्ध्वगामिनी बनाने के हेतु महान उद्योग, श्रेष्ठ त्याग और अपूर्ये साधना करनी होगी। ममोजय के माध्यम से उच्च ध्यान की साधना सम्पन्न होती है। चित्त की शुद्धि के लिए महापुरासकार ने तत्त्वार्थ की भावना को उपयोगी कहा है, क्योंकि उससे विचारों में विशुद्धता आदी है जिसके द्वारा विशुद्ध ध्यान की उपलब्धि होती है। उन्होंने कहा है