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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हार समाधान---श्रुतज्ञान की परिभाषा इस प्रकार है, "मदिणाणपरिच्छिण्ण-त्थादो पुधभूदत्थावगमो सुदणाणं"--मतिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ से भिन्न पदार्थ को ग्रहण करने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। वह शब्दलिंगज और अर्थ लिंगज के भेद से दो प्रकार का है। शब्द लिंगज के लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद हैं। सामान्य पुरुष के बचन समुदाय से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह लौकिक शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है । असत्य बोलने के कारणों से रहित पुरुष के मुख से निकले हुए शब्द से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, वह लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है। धूमादि पदार्थ रूप लिंग से उत्पन्न अर्थलिंगज श्रुतज्ञान को अनुमान कहा गया है। केवलदंसा-णाणे कसाय-सुस्केकए पुधत्ते य । पडिवादुवा तय-खर्वतए संपराए य ॥ १६ ॥
तद्भवस्थकेवली के केवलदर्शन और केवलज्ञान का काल तथा सकषाय जीव की शुक्ललेश्या का काल समान होते हुए भी इनमें से प्रत्येक का काल श्वासाच्छ्वास के जवन्य काल से विशेषाधिक है । इन तीनों के जघन्यकालसे एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान का जघन्य काल विशेषाधिक है । पृथक्त्ववितर्क वीचार का जघन्य काल विशेषाधिक है। उपशमश्रेणीसे पतित सुक्ष्मसांपरायिक का जघन्य काल विशेषाधिक है । उपशम श्रेणी पर चढ़नेवाले सूक्ष्मसांप रायिक का जघन्य काल विशेषाधिक है। क्षपकश्रेणीगत सूक्ष्मसापरायिक का जधन्यकाल विशेषाधिक है।
विशेष--शंका--केवलदर्शन तथा केवलज्ञान का काल केवलो सामान्य को अपेक्षा से न कहकर तदभवस्थ केवली की अपेक्षा कहा गया है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-- केवलदर्शन और केवलज्ञान का जघन्य काल श्वासोच्छ्वास के जघन्य काल से विशेष अधिक कहा है। इस कथन से प्रतीत होता है कि यह प्रतिपादन तदभवस्थ केवली की अपेक्षा