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२ शंका - उत्तर प्रकृति-स्थितिविभक्ति का कथन करने पर मूलप्रकृति-स्थितिविभक्ति का नियम से ज्ञान हो जाता है, इस कारण मूल प्रकृति-स्थितिविभक्ति का कथन अनावश्यक है ।
समाधान — यह ठीक नहीं है । द्रव्यार्थिक नय तथा पर्यायाथिंकन वाले शिष्यों के कल्याणार्थ दोनों का कथन किया गया है ।
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मूलप्रकृति-स्थितिविभक्ति के ये धनुयोगद्वार हैं। सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्ट विभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्याना सादाश्रीनिवारा वविभक्ति, अध्रुवविभक्ति एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर नानाजीवों की अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि इस प्रकार चौवीस श्रनुयोग द्वार हैं ।
३ शंका - प्रनुयोगद्वार किसे कहते हैं ?
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समाधान कहे जाने वाले अर्थ के परिज्ञान के उपायभूत अधिकार को अनुयोगद्वार कहते हैं ।
४ ये सभी अनुयोगद्वार उत्तर-प्रकृति-स्थितिविभक्ति के विषय में संभव है ।
२ उत्तरपयडि-द्विदिविहत्तीए परुविदाए मूलपयडिट्ठिदिविहत्ती पियमेण जाणिज्जदि, तेण उत्तर पर्योड-द्विदिविहत्ती चैव वत्तच्वा, मूलपर्याडिद्विदिविहत्ती, तत्थफलाभावादी । ण, दवदट्टिय प्रज्जवट्टियया गुग्गहणॣ तप्परुवणादो (पृष्ठ २२३)
३ किमणिगद्दारं णाम ? ग्रहियारो भण्णमाणत्थस्स अवगभोबायो (२२४)
* एदाणि चेव उत्तरपयडिट्टिदिविहत्तीए कादव्वाणि ( २२५ )