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मार्गदा
देवगति में नरक गति के समान वर्णन है :
तिर्यंचों में सम्यक्त्वप्रकृति के संक्रामक सबसे अल्प हैं। मिथ्यात्व के संक्रामक असंख्यात गुणे हैं। सम्यक्त्वमिथ्यात्व के संक्रामक इससे विशेषाधिक हैं। अनंतानुबंधी के संक्रामक इससे अनुतगुणित है ओमायोसाने अंहार परस्पर में तुल्य तथा विशेषाधिक हैं।
मनुष्यगति में मिथ्याल्व के संक्रामक सर्व स्तोक हैं। सम्यक्त्व के संक्रामक उससे असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक उससे विशेषाधिक हैं । अनंतानुबंधी के संक्रामक उससे असंख्यात गुणे हैं। शेष कर्मों का अल्पवहुत्व मोघ के समान है।
एकेन्द्रियों में सम्यक्त्वप्रकृति के संक्रामक सर्व स्तोक हैं। सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक विशेषाधिक हैं 1 शेष कर्मों के संक्रामक परस्पर तुल्य तथा अनंतगुणित हैं ।
अन प्रकृतिस्थान संक्रम के निरुपण हेतु सूत्र कहते हैं :अट्ठावीस चउबीस सत्तरस सोलसेव परणरसा। एदे खलु मोत्तूणं सेसाणं संकमो होइ ॥ २७ ।।
मोहनीय के अट्ठाईस स्थान हैं। उनमें अट्ठाईस, चौवीस, सत्रह, सोलह तथा पन्द्रह प्रकृतिरुप स्थानों को छोड़कर शेष तेईस स्थानों में संक्रमण होता है।
विशेष--संक्रमण के स्थान २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २ तथा १ ये तेईस कहे गए हैं।
सोलसग बारसग वीसं वीस तिगादिगधिया य । एदे खलु मोत्तूणं सेसाणि पडिग्गहा होति ॥ २८ ॥