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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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हैं। इसी प्रकार सभ्यवत्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व अप्रत्याख्याना वरणादि द्वादश कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा के विषय में इसी प्रकार जानना चाहिये ।
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अनंतानुबंधी का जघन्य श्रग्रस्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशात्र सर्व स्तोक है | जघन्य यथानिषेक स्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशाग्र उससे अनंतगुणित हैं । [ जघन्य ] निषेक स्थिति प्राप्त कर्मप्रदेशाय विशेषाधिक हैं । जघन्य उदयस्थिति प्राप्त प्रदेशाय प्रसंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार श्रल्पबहुत्व, त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोक के विषय में जानना चाहिये, 'एवमित्थि वेद-वं सयवेद-अर दिसोगाणं ।'
इस प्रकार 'पीय मोहणिज्जा' मूल गाथा का संक्षिप्त कथन समाप्त हुआ ।
बंधक अनुयोगद्वार
कदि पयडीयो बंदि द्विदि रणुभागे जहण्णमुक्कस्सं । संकामे कदि वा गुणहीणं वा गुणविसि
॥२३॥
कितनी प्रकृतियों को बांधता है ? कितनी स्थिति अनुभाग को बांधता है? कितने जघन्य और उत्कृष्ट परिणाम सहित कर्म प्रदेशों को बांधता है ? कितनी प्रकृतियों का संक्रमण करता है ? कितनी स्थिति और अनुभाग का संक्रमण करता है ? कितने गुणहीन और गुणविशिष्ट प्रदेशों का संक्रमण करता है ?
विशेष – यतिवृषभ श्राचार्य कहते हैं 'एदीए गाहाए बंधो च संकमो च सूचिदो होइ' - इस गाथा के द्वारा बंध और संक्रम सूचित किए गये हैं।
'कद पडी बंबई' पद से प्रकृतिबंध, 'द्विदि प्रणुभागे पद द्वारा स्थितिबंध तथा श्रनुभाग बंध, 'जहणमुक्कर्स' पद से प्रदेश