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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
अधिक शक्तियुक्त भी बनाया जा सकता है 1 उदीरणा के द्वारा फर्मों का अनियत काल में उदय होकर निर्जरा होती है। तप के द्वारा जो असमय में निर्जरा होती है, उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं । कमों का फल भोगना ही पड़ेगा-"नामुक्त क्षीयते कर्म" यह पात सर्वथा रूप से जैन सिद्धान्त में नहीं मानी गई है । जब अात्मा में रत्नत्रय की ज्योति प्रदीप्त होती है, तब अनंतानंत कार्मास वर्गणाएं बिना फल दिए हुप निर्जरा को प्राप्त हो जाती है। केवली भगवान के एक समय की स्थिति षाला साता वेदनीय कर्म का बंध होता है, जो अनतर समयमें उदय को प्राप्त होता है । उसी साता वेदनीय रूपमें परिणत होकर असाता वेदनीय की निर्जरा हो जाती है। इस कारण केवली भगवान के ज्ञधा आदि की पीड़ा का अभाव सर्वज्ञोक्त शासन में स्वीकार किया गया है।
ज्ञानावरण और दर्शनायरण का स्वभाव जीव के ज्ञान और दर्शन गुणों का आवरण करना है। बौद्धिक विकास में न्यूनाधिकता का संबंध ज्ञानावरण कमे से है। सुख तथा दुःख का अनुभवन कराना घेदनीय कर्म का कार्य है। आत्मा के श्रद्धा और चारित्र को विकृत घनाना मोहनीय का कार्य है। इसके द्वारा प्रात्मा के सुख गुणको भी क्षति प्राप्त होती है। यह मदिरा के समान जीव को अपने सच्चे स्वरूप की स्मृति नहीं होने देता है । मनुष्यादि पर्यायों में नियत काल पर्यन्त जीव की अवस्थिति का कारण आयु कम है। शरीरादि की रचना का कारण माम कर्म है । यह चित्रकार सदश जीव को विविध रूपता प्रदान करता है। लोक पूजिव अथवा उच्च नीच देह पिण्ड की प्राप्ति में कारण गोत्र कर्म है। यह कुंभकार के समान माना गया है। दान, लाभ तथा भोगादि में यिन्न करने वाला अंतराय फर्म कहा गया है। जीव में उच्चपना नीचपना, समाज की कल्पना नहीं है। जैन शासन में इसे गोत्र फर्म बन्य माना गया है।
वेदनीय कर्म यद्यपि अघातिया है, फिर भी यह ज्ञानावरण, दर्शनावरण के पश्चात तथा मोहनीय रूप धातिया कर्मों के मध्य में रखा गया है, क्योंकि मोह का अवलंथन प्राप्त कर यह कर्म जीव के गुण का घात करता है। वेदनीय कर स्वरूप गोम्मदसार कर्मकाण्ड में इस प्रकार दिया गया है :
अक्वाणं अणुभवणं चेयणियं सुहसरूवयं सादं । दुःखसरूवमसादं तं वेदयदीदि वेदणियं ॥१४॥
इंद्रियों का अपने विषयों का अनुभवन अर्थात्, जानना वेदनीय है। जो दुःख स्वरूप अनुभवन कराता है, वह असावा वेदनीय है तथा जो