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। प्रदेश बंध फहा है। योग के कारण प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं। | कषाय के कारण स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं।
कर्मा का प्रधान-आठौं कर्मों के सम्राट् के समान मोहनीय की स्थिति है । सत्वानुशासन ग्रंथ में लिखा है:
मंध - हेतुषु सर्वेषु मोहश्चक्री प्रमोदितः । मिथ्याज्ञानं तु तस्यैव सचिरत्वमशिश्रयतू ।। १२ ॥
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज समस्त बंध के कारणों में मोह कर्म चक्रवर्ती कहा गया है। उसका मंत्री मिथ्याज्ञान कहा गया है ।
ममाहंकारनामानौ सेनान्यों च तन्सुतो। यदायत्तः सुदुर्भेदो मोह-व्यूहः प्रवर्तते ।। १३ ॥
उस मोह के ममकार और प्राहकार नाम के दो पुत्र हैं, जो सेना नायक हैं। उन दोनों के आधीन मोह का अत्यन्त दुर्भद्य सेना घ्यूह-सेनाचक्र कार्य करता है।
ग्रन्थ का प्रमेय---इस कपाय पाहतु ग्रंथ में मोहनीय कर्म का ही वर्णन किया है । बीरसेन आचार्य ने कहा है "एत्थ कसाय-पाहुडे सेस-सत्तराई कम्मा परूवया राथि ति भगिर्द होदि"-इस कषाय पाहु ग्रंथ में शेष सात कमों की प्ररूपणा नहीं की गई है।
मोहनीय के प्रभेद-मोहनीय कर्म के दो भेद हैं (१) दर्शन - (२) चारित्र मोहनीय । दर्शनमोहनीय के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति
तथा मित्र प्रकृति ये तीन भेद है। चारित्र मोह के काय तथा अकषाय (नोकपाय ) ये दो भेद हैं। क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप चार प्रकार कषाय हैं। उनमें प्रत्येक के अनंतानुबंधी; एक देश संयम को रोकने पाली अप्रत्याख्यानावरण, सकल संयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानाबरणा तथा जिस कपाय के रहते हुए भी संयम का परिपालन होता है तथा जिसके कारण यथाख्यात चारित्र नहीं हो पाता, वह संज्वलन कषाय रूपभेद हैं।
हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्मा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसक घेद ये नोकपाय या अकषाय कही गई है। अपाय का अर्थ ईपत् कषाय है। क्रोधादि कषायों के होते हुए ये नोकषाय वीत्र रूप से जीव को