________________
माया क्रमशः न्यून होती हुई विर्यच, नर एवं देवगति में जीव को पहुँचाती है। माया के विषय में कहा है:
बंसी-जएहुग मरिसी मेढविसारण मरिसी य गोमुत्ती । अवलेहणी यमाया माया वि घडचिहा मणिदा ॥ ७२ ॥
बांस की जन् समान मेढे के सींग समान, गोमूत्र समान तथा अवलेखनी अर्थात् , दातीन वा जीभी के समान माया चार प्रकार का मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
अत्यन्त भयंकर कुटिलता रूप माया बांस की जड़ तुल्य कही है। उसके होने पर यह जीव नर कति में जाता है। उससे न्यून मेटे के सींग, गोमूत्र तथा अवलेखनी समान भाया के द्वारा क्रमशः तिर्यच, मनुष्य तथा देव पर्याय में उत्पत्ति होती है।
गोम्मटसार में अवलेहनी के स्थान में 'खोरप्प-शुराम का उदाहरण दिया गया है। बांस की जड़ समान उत्कृष्ट शक्ति युक्त माया कषाय नरकगति का कारण है। मेंढे के सींग सहश माया अनुत्कृष्ट शक्ति युक्त माया मनुष्य गति का कारण है। अक्लेखनी समान माया जघन्य शक्ति युक्त होने से देव गति का कारण कही गई है। राजवार्तिक में कषाय पाहुड के ही उदाहरण दिए हैं। “माया प्रत्यासन-वंश पर्वोपचितमूल-मेष शृंग-गोमूत्रिका-वलेखनी सदशा चतुविधा"।
लोभ के विषय में कहा है:किमिराय-रत्त-समगो अक्ख-मल-ममा य पंसुलेक्समो ।
हालिद्दवस्थसमगो लोभो विउविहो भणिदो ॥ ७३ ।। - कृमिराग रूप कीट विशेष से उत्पन्न होरा से निर्मित वस्त्र के समान, अत्यन्त पक्का रंग सदृश, अर्थात् गाड़ी के आँगन के समान, पाशु लेप अर्थात् धूली के समान तथा हारिद्र अर्थात् हल्दी से रंगे वस्त्र के समान लोभ चार प्रकार का कहा गया है।
गोम्मटसार जोवकाण्ड में लोभ का पाशुलेप अर्थात् धूली के लेप के स्थान में 'वणुमन'-शरीर के मद का उदाहरण दिया है। राजपातिक में लिखा है "लोभः कृमिरान-कज्जल-कर्दम-हारिद्वारागसदृश