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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( ४० )
आसव-बंध के हेतु इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि कुंदकुंद स्वामी ने गृहस्थ को शुद्धोपयोग का अपात्र माना है ।
* गोम्मटसार कर्मकाण्ड में मिध्यात्व अविरति कषाय, तथा योग को भाव कहा है। उनके क्रमश पांच, द्वादश, पच्चीस नया पंद्रह भेद हैं। सत्वार्थ सूत्र में इन कारणों को बंध का कारण कहा है। समयसार में बंध के कारण मिथ्यात्व अविरति कषाय तथा योग कहे गए हैं ।
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सामण्णपच्चया खलु चउरो भांति बंध कत्तारो । मिच्छतं प्रविरमणं कसाय जागा य बोधव्या ॥ १०६ ॥
इन भिन्न कथनों का समन्वय कैसे होगा ?
समन्वय पथ - अध्यात्मकमल मार्तण्ड में कहा है, कि मिथ्यात्व बादि चारों कारण भाव तथा बंध में हेतु हैं, क्योंकि उनमें दोनों प्रकार की शक्तियां हैं; जिस प्रकार अग्नि में दाहकत्व और पान्चकत्व रूप शक्तियों का सद्भाव पाया जाता है। जो मिथ्यात्व आदि प्रथम समय में श्रस्रव के कारण होते हैं, उनसे हो द्वितीय क्षण में बंध होता है। इसलिए पूर्वोक्त कथन में अपेक्षा कृतभेद है । देशना में भिन्नता नहीं है |
शंका -- श्लोकवार्तिक में यह शंका उत्पन्न की गई है, “योग एव आस्रवः सूचितो न तु मिध्यादर्शनादयोऽपीत्याह " -- सूत्र में योग को ही आस्रव कहा है, मिध्यादर्शन आदि को श्राव नहीं कहा है। इसका क्या कारण है ?
* मिच्छन्तं श्रविरमणं कसाय-जोगा य आसा होंति । पर-वारस परगुवीसं-परसा होंति सभेया ॥ ७६ ॥ अत्वारः प्रत्ययास्ते ननु कथमिति भावास्रवो भावबन्ध -- चैकत्वात् वस्तुतस्तो वत मतिरिति चेत्तन्न शक्तिद्वयात्म्यात् । एकस्यापीह बह्नर्दहन - पचन - भावात्म शक्तिद्रयायें वह्निः स्यात् दाहकश्च स्वगुणबलात्पाच कश्चेति सिद्धेः ।। मिथ्यात्वाद्यात्मभावाः प्रथमसमय एवानवे हेतवः स्युः । कर्म प्रतिसमसमये तौ भवेतां कथंचित् ॥ नव्यानां कर्मसागमनमिति तदात्वे हि नाम्नास्तत्रः स्यात् । आयत्या स्यात्स पंधः स्थितिमिलिय- पर्यन्त मेषो नयोर्थिवः । परिच्छेद
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