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व उसके सघया अबंधपने का कथन करना उचित कार्य नहीं है। भागम चं. अनुसार अपनी श्रद्धा को बनाना विचारवान व्यक्ति का कर्तव्य है।
जिस पद खंडागम सूत्र का संबंध क्रमागत परंपरास सर्वज्ञ भगवान महाक प्रभु श्रायसिसुविधिगज्वीकाणमें कहा है, "सम्मादिट्टी बंधा वि मास्थि, अबंधा वि अस्थि" । चद्रक बंध भाग, सूत्र २६) सम्यक्त्वी के वंध होता है, अवधभी होता है। टीकाकार धवला टीका में कहते हैं, "कुदो। सामवाणामधेसु सम्म सगुवलमा'-आस्रव तथा अनाव अवस्था युक्त जीवों के सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है। सूक्ष्म दृष्टि में विचार करने पर अयोग केवली भगवान को निरास्रव कहा है। "रिसरुद्ध शिस्सेस-आसनो जी"गयजोगो केवली 'पागम जब सर्वच सयोगी जिनको पानव रहित नहीं कहता है, तब विरति सम्यक्त्वी की निगराभव मानना उचित नहीं है।
महत्यपूर्ण कथन-उत्तरपुर में गुणभद्र आचार्य ने कहा है कि विमलनाथ भगवान चैराग्य भाव उत्पन्न होने पर सोधत है :
चारित्रस्य न गन्धोपि प्रत्याख्यानोदयो यनः । पंधश्चतुविधोप्यम्ति बह-मोह-परिग्रहः ॥३५॥ प्रमादाः संति सपि निर्जराप्यल्पिब मा । अहो मोहम्य माहात्म्यं मान्धाभ्य मि हव हि ॥३६॥ मर्ग ५६॥
प्रत्याख्यानाधयम का उदय होने से मेरे चारित्र की गंध भी नहीं है: बहुत माह तथा परिग्रह ग्रुगः चार प्रकार का कर्म बंध भी हो रहा है। मेरे सभी प्रमाद पाए जात है। मेरे कर्मों की निजंग भी अत्यन्त अल्प प्रमाण में हो रही है। अहो! यह मोह की महिमा है, जो मैं (तीर्थकर होते हुए भी) इभ पंसार में शिथिलतावश बैठा
रत्नत्रय का महत्व-इस कथन का यह अर्ध नहीं है कि चारित्रही सय कुछ है. । श्रद्धा और मम्यज्ञान का कुछ भी मूल्य नहीं है। यथार्थ में मोक्ष का कारण रहलनय धर्म है। सोमदेवसूर ने यशस्तिलक में मार्मिक बात कही है, जिसस रत्नत्रय धर्म का महत्व स्पष्ट होता है :
सम्यक्त्वात् मुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कोतिरुदाहृता । वृचात्पूजामयामोत याच्च लभते शिवम् ।।