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( ३८ ) पर क्षयशील है। जैसे प्रकाश के आते ही सदा अंधकार वाले प्रदेश से अंधकार दूर हो जाता है, अथवा शोत भूमि में उष्णता के प्रकर्ष होने पर शीत का अपक होता है; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि के प्रकर्ष से मिथ्यात्यादि विकारों का अपकर्ष होता है। रागाद विकारों में हीनाधिकप्ता को देखकर तार्किक समंतभद्र कहते हैं, कि कोई ऐसी भी
आत्मा होती है, जिससे रागादि पूर्णतया दूर हो चुके हैं. उसे ही परमात्मा कहते हैं।
सादिबंध क्यों नहीं ? पंचाध्याची में लिखा है, जिस प्रकार जीव अनादि है, उसी प्रकार पुद्गल भी अनादि है। उनका संबंध भी वर्ण पाषाण के किट-कालिमादि के संबंध सदश अनादि है। ऐसा न मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आयेगा। अभिप्राय यह है, कि पूर्व में
अशुद्धना स्वीकार किए बिना बंध नहीं होगा। यदि शुद्ध जांच में बंध रूप ! अशुद्धता उत्पन्न हो गई, तो स्थायीरूप में निर्वाण का लाभ असंभव
होगा। जब मोक्ष प्राप्त शुद्ध जीव कर्मों के कुचक्र में फंसेगा, तो संसार का J चक्र सदा चलेगा और मोक्ष का अभाव हो जायेगा। + प्रतिको पसघालतानमगासद्ध है। यह पराधीनता
यदि सादि मानी जाय, तो मोक्ष का अभाव हो जायेगा। सर्वज्ञ, अनंतसक्तमान, अनंत सुखी श्रात्मा मुक्त अवस्था में रहते हुए दुःख के यारण गगादि को उत्पन्न करेगा, यह कल्पना तके तथा गंभीर चिंतन के प्रतिकूल है। ऐसी स्थिति में अर्थापत्ति प्रमाण के प्रकाश में जीव और कमों का अनादि संबंध स्वीकार करना होगा।
कम श्रागमन का द्वार--मात्मा में कमी के प्रवेश द्वार को श्रास्रव कहा गया है। मनोरणा, वचनवर्गए. तथा कायवर्गणा में से किसी एक के अवलंबन से धात्म प्रदेशों में सपता उत्पन्न होती है। उससे कर्मों का आगमन हुश्रा करता है। धवला दीका में योगों का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है, "भा मनसः समुत्पत्यर्थः प्रयत्लो मनोयोगः तथा वचम: | ममुत्पत्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः। काय क्रिया-समुत्पत्यर्थः प्रयत्न चाय। योगः-भात्रमन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होचा है. बद मनोयोग है। वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, वह वचनयोग है। काय को क्रिया की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, वह काययोग है। यह योग विशेष परिभाषिक संज्ञा रूप है। यह ध्यान के पर्यायवाची योग से भिन्न है। यह पुद्गल कर्मी का आत्मा के साथ संबंध कराने में निमित्त कारण है।