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४ ४० कर्मविज्ञान : भाग ७
कषायों के चक्कर में फँसकर स्वयं अशान्ति मोल लेना है
मनुष्य जाति. आज कषायों के अधिकाधिक चक्कर में फँसती जा रही है, उसके कारण उसकी मानसिक और आध्यात्मिक शान्ति हवा हो गई है। मनुष्य चाहता तो है मानसिक शान्ति; किन्तु क्रोध, अहंकार, माया और लोभ के कुचक्र में फँसकर वह अधिकाधिक अशान्ति को निमंत्रण दे रहा है। वह कषायों को उपशान्त, क्षीण या मन्द करने के बदले तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम करता जा रहा है। उसकी अशान्ति का मूल स्रोत है - कषाय, आन्तरिक आवेश और क्रोध, मान, माया और लोभ का तीव्र आवेग ।
क्रोधादि कषाय क्यों उत्तेजित होते हैं ?
भौतिकविज्ञान के विभिन्न आविष्कारों से प्रेरित होकर उसने अपनी सुख-सुविधा के लिए कामनाओं के वश जितने जितने साधन जुटाए हैं, उतना उतना उसका असंयम बढ़ा। वह पराधीन, अशान्त और तनावों से ग्रस्त हुआ । विविध कामनाओं और इन्द्रिय-विषयों के सब कुछ साधनों को जुटाने की लालसा से मूढ़ होकर दौड़-धूप करता है। वह इनकी पूर्ति इसलिए करना चाहता है, उसे अपने और अपनों के लिए सुख-सुविधा, मान-प्रतिष्ठां और गौरव मिले। फलतः लोभवश सत्ता और सम्पत्ति पाने की होड़ में उसकी दौड़ शुरू हो जाती है। अपने मिथ्या एवं भौतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह झूठ - फरेब, छल-प्रपंच, तिकड़मबाजी, हेराफेरी, भ्रष्टाचार आदि के विभिन्न तरीकों का सहारा लेता है। जैसे-जैसे उसे इस दौड़ में सफलता मिलती है, वैसे-वैसे उसका अहं पुष्ट होता है । यदि दूसरा उस दौड़ में आगे निकल जाता है, तो उसके प्रति ईर्ष्या होती है, उसकी निन्दा और बदनामी करके उसे पछाड़कर स्वयं आगे बढ़ने की होड़ लगती है । अहं का आहनन वह सहन नहीं करता तथा हीनभावना को दबाने, स्वत्वमोह के विस्तार और संरक्षण को पुष्ट करने में जहाँ भी बाधा उपस्थित होती है, वहाँ क्रोध और मान के आवेश से भर जाता है, उत्तेजना के तीव्र पंखों के सहारे वह अधिकाधिक क्रोधादि आवेग में उड़ने लगता है । यही तीव्र कषायों का चक्र है, जो उसकी मानसिक अशान्ति को भंग कर देता है। लोभ उसका उत्पादक है; कामना एवं स्वार्थसिद्धि ही तो लोभ की पुत्री है । किन्तु क्रोध - तीव्र क्रोध, जोकि परिणाम है,. वह अभिव्यक्तरूप होने के कारण मानव की अशान्ति का आदि बिन्दु बन गया । अन्तिम बिन्दु से चलने पर अशान्ति के क्रमशः उत्पादक लोभ, माया, मान और क्रोध प्रतीत होते हैं । '
१. 'जैन भारती', सितम्बर १९९१ में प्रकाशित 'जैन धर्म की आस्था : पर्युषण लेख' से भावांश
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