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ॐ सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप * २७३ ॐ
सम्यक्तप का फल है-व्यवदान = कर्ममल को दूर करना तुंगिया नगरी के तत्त्वज्ञ श्रावकों ने भगवान पार्श्वनाथ के श्रमणों से तत्त्वचर्चा के दौरान पूछा-“भंते ! आप तप क्यों करते हैं ? (सम्यक्) तप का क्या फल है ?" तब उत्तर में श्रमणों ने कहा-“तप का फल है-व्यवदान। आदान का अर्थ हैग्रहण करना और व्यवदान का अर्थ होता है-छोड़ना, दूर हटाना। फलितार्थ हुआतप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों को दूर हटाना = क्षय करना = निर्जरा करना तप का
फल है।"
सम्यक्तप तन, मन को तपाकर आत्म-शुद्धि करता है कर्म शुद्ध आत्मा पर लगी हुई गंदगी है, मैल है, अशुद्धि है। सम्यक्तप उस गन्दगी या मैल को, तन-मन को तपाकर आँच पहुँचाकर उसी प्रकार दूर कर (निकाल) देता है, जिस प्रकार तपेती को तपाकर उसमें रखे हुए मक्खन को आँच पहुँचाकर उसके साथ मिले हुए मैल (कीट, छछेडु आदि) को दूर कर (निकाल) देता है एवं घृत को शुद्ध कर देता है। यहाँ बाह्य-आभ्यन्तर तप की आँच से तन-मन को तपाकर आत्मा के साथ चिपके हुए शुभाशुभ कर्मों को तथा उन कर्मों के कारणभूत राग-द्वेष, कषाय, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार आदि विकारों को दूर कर (निकाल) दिया जाता है। जिससे आत्मा शुद्ध निष्कलंक हो जाती है। तप एक प्रकार की अग्नि है। ‘आचारांगसूत्र' में विधान है कि जिस प्रकार अग्नि पुराने जीर्ण-शीर्ण काष्ठ को शीघ्र ही जला डालती है, इसी प्रकार तपरूपी अग्नि भी आत्मा में निहित पुराने बँधे हुए और संचित पड़े हुए कर्मरूपी कचरे तथा राग-द्वेषादि विकारों को जला डालती है। अतः आत्म-समाधिवान् - निःसंग साधक तप से अपनी आत्मा (कषायात्मा तथा कर्मशरीर) को कश कर दे, जीर्ण कर दे।"२ _ 'राजवार्तिक' में कहा गया है-जैसे अग्नि संचित तृणादि को भस्म कर देती है, उसी तरह अनशनादि तप भी अर्जित मिथ्यादर्शनादि जनित कर्मों को भस्म कर
पिछले पृष्ठ का शेष(छ) रस-रुधिर-मांस-मेदाऽस्थि-मज्जा-शुक्राण्यनेन तप्यन्ते। कर्माणि वा ऽशुभानीत्यतस्तपो नाम निरुक्तः॥
-स्थानांग. वृत्ति, स्था. ५ (ज) इन्द्रिय-मनसो नियमानुष्ठानं तपः।
-नीतिवाक्यामृत १/२२ १. (प्र.) तवे किं फले? (उ.) तवे वोदाणफले।
-भगवतीसूत्र, श. २, उ. ५ २. कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं। जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिए अणिहे।
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ४, उ. ३
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