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४७८ कर्मविज्ञान : भाग ७
संवर के साथ निर्जरा हो, तभी उभयविध निर्जरा कृतकार्य
अब यह प्रश्न होता है कि सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष के लिए इन दोनों (सविपाक और अविपाक) में से किस निर्जरा को चुना जाये, जिससे कि आत्मा शीघ्र ही कर्मबन्ध से सर्वथा मुक्त हो सके ?
कुछ विचारक इस तथ्य पर जोर डालते हैं कि जब तक पूर्वबद्ध कर्मों का पूर्ण रूप से फल नहीं भोग लिया जायेगा, तब तक आत्मा का मोक्ष, सर्वकर्ममुक्ति या अपवर्ग नहीं हो सकता। सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष की साधना में दो तत्त्वों को मुख्यता दी गई है-संवर और निर्जरा को । नवीन कर्मों के आस्रव ( आगमन) को रोकना संवर है और पुराने संचित कर्मों को उदय में आने पर या तप, व्रत, परीषह - उपसर्ग-सहन आदि के द्वारा कर्मों का क्षय करना अथवा कर्मों का अंशतः क्षय होना निर्जरा है। जैसे किसी तालाब में नाली के द्वारा जल आता रहता है और वह पुराने जल के साथ मिलकर एकमेक हो जाता है, बढ़ता जाता है । यदि नाली के मुख को बन्द कर दिया जाता है तब तालाब में नया जल किसी भी प्रकार से आता हुआ रुक जायेगा और पुराना संचित जल क्रमशः सूर्य के आतप से तथा पवन के स्पर्श से सूखता चला जायेगा और एक दिन वह तालाब जल से सर्वथा रिक्त (खाली) हो जायेगा । यही सिद्धान्त आत्मा को कर्म से सर्वथा रिक्त करने के सम्बन्ध में है। आत्मा (जीव ) रूपी तालाब में शुभ-अशुभ कर्मानव द्वारा नये कर्म आकर पुराने संचित कर्मों के साथ मिलते और बढ़ते चले जाते हैं। अगर नये आते हुए कर्मों को रोकना हो तो उसके लिए संवर की साधना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि साधक जब आत्मा में नये आते हुए कर्मों (कर्मास्रवों) को रोक देता है, तब उसके सामने केवल पुराने कर्मों के क्षय करने की साधना रह जाती है, पुराने संचित उभयविध कर्मों को-जो उदय में आ गये हों या अभी उदय में न आये हों-क्षय करना निर्जरा का कार्य है । '
अतः जब साधक पूर्वबद्ध कर्म के फल भोगे बिना ( अर्थात् उसमें राग-द्वेष का संवेदन किये बिना) एवं उसके उदयकाल से पहले ही उसका क्षय कर डालता है, उसे ही शास्त्रीय भाषा में अविपाक निर्जरा कहा जाता है। तप, व्रताचरण, ध्यान, स्वाध्याय, परीषह-सहन, उपसर्ग-सहन आदि की ( सम्यग्दृष्टि द्वारा संवरपूर्वक ) इस साधना से कर्म को उसके विपाककाल से पूर्व ही नष्ट कर दिया जाता है।
(क) 'अध्यात्म प्रवचन' के आधार पर, पृ. ९३ (ख) जहा महातलायस्स सन्निरुद्धे जलागमे ।
उस्संचणा तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥५ ॥
एवं तु संजय सावि पावकम्म निरासवे ।
भवकोडि संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥ ६ ॥ - उत्तराध्ययन, अ. ३०, गा. ५-६ २. 'अध्यात्म प्रवचन' के आधार पर, पृ. ९६-९७
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