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* शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा ४८३
प्रकार पर्वतीय गुफा में असंख्य वर्षों से रहे हुए घने अंधकार को प्रकाश की एक ज्योति क्षणभर में ही नष्ट कर देती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप की निर्मल ज्योति से असंख्य जन्मों के पूर्व संचित कर्म भी अविपाक निर्जरा द्वारा क्षणभर में नष्ट किये जा सकते हैं। इसी तथ्य का समर्थन 'प्रवचनसार' में किया गया है - " अज्ञानी साधक (बालतप, विषमभावपूर्वक भयंकर कष्ट सहन आदि के द्वारा) लाखों-करोड़ों जन्मों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने ही कर्म मन-वचन-काया को संयत (गुप्त) रखने वाला (सम्यग्दृष्टियुक्त) सम्यग्ज्ञानी साधक एक श्वासमात्र में क्षय कर डालता है । " " आशय यह है कि हजारों, लाखों, करोड़ों के संचित कर्मदलिकों को सम्यग्दृष्टियुक्त ज्ञानी तपोधनी साधक अविपाक निर्जरा के द्वारा एक क्षण में समाप्त कर देता है। अविपाक निर्जरा एक महान् दिव्य प्रकाशमयी साधना है, जिसकी आत्मा में यह समभावपूर्वक अधिष्ठित हो जाती है, वह अनादिकाल से या लाखों-करोड़ों वर्षों से बँधे हुए कर्मों के अन्धकार को क्षणभर में नष्ट कर सकता है ।
अविपाक निर्जरा के द्वारा शीघ्रतर मोक्ष प्राप्ति के ज्वलन्त उदाहरण यद्यपि अविपाक निर्जरा की परिभाषा के अनुसार वह उदयावलिका में अप्रविष्ट कर्मों की होती है, किन्तु 'भगवती आराधना' में कहा गया- " तप आदि के द्वारा होने वाली अर्थात् अविपाक निर्जरा सर्वकर्मों (पक्व = उदय में आए हुए और अपक्व उदय में नहीं आए हुए सभी कर्मों) की होती है । " ३ इस दृष्टि से गजसुकुमाल मुनि के ९९ लाख भवों पूर्व बँधे हुए कर्म, यद्यपि उन्होंने जब बारहवीं भिक्षुप्रतिमा अंगीकार की थी और महाकाल श्मशान में कायोत्सर्ग में स्थित हो गये थे, तब तक उदय में नहीं आए थे, किन्तु जब उनके गृहस्थाश्रमपक्षीय श्वसुर सोमल . विप्र ने उन्हें देखा और पूर्वभवजन्य वैर का स्मरण हो आया । अतः सोमल विप्र के निमित्त से वह ९९ लाख भवों पूर्व में बद्ध कर्म उदय में आ गया और उसके तीव्र दारुण दुःख को उन्होंने समभावपूर्वक भेदविज्ञान की स्थिति में भोगा । उक्त निर्जरा को हम अविपाक निर्जरा कह सकते हैं, जिसके प्रभाव से गजसुकुमाल मुनि बहुत ही शीघ्र सर्वकर्मों को क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। इसी प्रकार अर्जुन मुनि को भी छह महीने में सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष की प्राप्ति भी अविपाक निर्जरा का ज्वलन्त उदाहरण है। अर्जुन मुनि ने श्रमण भगवान महावीर से भागवती दीक्षा ग्रहण करते
9. (क) 'अध्यात्म प्रवचन' के आधार पर, पृ. ९२, ९८-९९ (ख) जं अण्णाणी कम्मं, खवेदि भव-सयसहस्त-कोडीहिं ।
तं गाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमित्तेणं ॥
२.
'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. ९९ ३. कम्मस्स तवेण पुणो सव्वस्स वि णिज्जरा हो ।
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- प्रवचनसार ३/३८
-भगवती आराधना, गा. १८४९
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