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* शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा ४७५
अनुभव हो सकता है तो अच्छे चिन्तन का अच्छा अनुभव भी हो सकता है | अनन्त शक्ति आत्मा का सहज स्वभाव है। वह शक्ति जब काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर, वासना, आसक्ति और घृणा आदि में लग सकती है, तब वह इनसे निकलकर शान्ति, क्षमा, सन्तोष, सरलता, नम्रता, मैत्री आदि में तथा अहिंसा, सत्य आदि के पालन में एवं बाह्याभ्यन्तर तप और त्याग में भी लग सकती है। आनन्द (अव्याबाध आत्मिक सुख) आत्मा का निजी स्वभाव है। जब वह विषयसुखों में, पर-पदार्थों में, इष्ट संयोग- अनिष्ट वियोग में आनन्द मानता है, तब इनसे बचकर त्याग, तप, क्षमादि गुणों की आराधना - साधना में तथा आत्म-स्वभाव में रमण करने में आनन्द क्यों नहीं मना सकता? आत्मा की शक्ति जब काम, क्रोध, राग, द्वेष, कषाय आदि में फँस सकती है, तब एक दिन वह उनसे निकल भी सकती है, उनके बन्धन से मुक्त भी हो सकती है ।
प्रत्येक प्राणी बन्धन-मुक्त होना पसन्द करता है
वस्तुतः संसार का प्रत्येक प्राणी बन्धन से मुक्त होना पसन्द करता है। चींटी जैसी साधारण प्राणी भी बन्धन में नहीं रहना चाहती । तोते को आप चाहे सोने के पिंजरे में डाल दें, चाहे जैसी सुख-सुविधा जुटा दें या खाने की उत्तम वस्तुएँ दे दें, फिर भी अवसर मिलते ही वह पिंजरे का मोह छोड़कर उन्मुक्त आकाश में उड़ जाता है । बन्धन की स्थिति में चाहे जितने भौतिक सुख-साधन मिलें, मन में सदा यही कल्पना बनी रहती है कि मैं बन्धन में हूँ, कब बन्धन से छूयूँ ? भौतिक विषयभोग उपलब्ध होने पर भी वह स्वयं को पराधीन समझता है । पशु-पक्षी जैसे अल्प-विकसित चेतनाशील प्राणी भी जब बन्धन को स्वीकार नहीं कर सकते, तब मनुष्य जैसा अधिक विकसित चेतनाशील प्राणी को बन्धन कैसे रुचिकर हो सकता है? निष्कर्ष यह है कि किसी आत्मा का चाहे जितना पतन क्यों न हो गया हो, वह कितना ही पापाचार के गर्त में पड़ गया हो, किन्तु बन्धन से मुक्त होने की एक सहज अभिलाषा उसके मन में भी रहती है।
सम्यग्दृष्टि मुमुक्ष साधक के समक्ष शुभ कर्मों को क्षय करने की समस्या नहीं सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु साधक यह तो जानता है कि आत्मा स्वयं ही कर्म बाँधता है और स्वयं ही कर्म को काट सकता है । बन्ध और मोक्ष दोनों ही उसके हाथ में हैं। 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है- " मैंने सुना है, मेरी आत्मा में ऊहापोह, चिन्तन या गुणन द्वारा यह अनुभूत (स्थिर) हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित हैं । " " जो कर्म स्वयं ने बाँधा है, उसे स्वयं क्षय भी कर सकता है। यह ठीक है
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से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंध- पमोक्को अज्झत्थमेव ।
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- आचारांग, श्रु. १, अ. ५, उ. ३
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