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® २७२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
सम्यक्तप का निर्युक्त, अर्थ, लक्षण और उद्देश्यात्मक परिभाषा
सम्यक्तप की परिभाषा को समझने से भी यह तथ्य स्पष्ट हो जाएगा। 'आवश्यकसूत्र मलयवृत्ति' में कहा है-"जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, उन्हें भस्म करने में समर्थ है, वह तप है।" 'निशीथचूर्णि' में कहा गया है-"जिस साधना से पापकर्म तप्त हो जाते हैं-कर्मरूप हिमखण्ड उत्तप्त होकर पिघल जाते हैं। वह तप है। 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार तप का लक्षण है-“कर्मक्षय करने के लिए तन, मन, इन्द्रियादि जिससे तप्त होते हैं, वह तप है।" 'राजवार्तिक' में कहा है"कर्मों को तपाया जाय-दहन किया जाता है, इस कारण इसे तप कहते हैं।" 'उत्तराध्ययनसूत्र' में सम्यक्तप की उद्देश्यमूलक परिभाषा इस प्रकार की गई है"राग और द्वेष से अर्जित पापकर्मों का तप से जिस प्रकार क्षय किया जाता है उसे तू एकाग्रचित्त होकर सुन।" - इससे भी परिष्कृत लक्षण 'मोक्ष-पंचाशत' में दिया गया है-“वीर्य (शक्ति) का उद्रेक होने के कारण से इच्छाओं के निरोध को तप कहा गया है।" 'अनगार धर्मामृत' में कहा गया है-“तप शब्द का निर्वचन है-मन, तन और इन्द्रियों को तपाना (विपरीत मार्ग में जाने से) रोकना तप है। इसका फलितार्थ है-रत्नत्रय का आविर्भाव (प्रकटीकरण) करने के लिए इष्टानिष्ट इन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा का निरोध करना तप है।' 'आचार्य अभयदेवसूरि' ने 'तप' का निर्वचन (शाब्दिक अर्थ) करते हुए कहा है-जिस साधना के द्वारा रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थियाँ, मज्जा एवं शुक्र आदि तपाये-सुखाये जाते हैं तथा जिसके कारण अशुभ कर्म तपकर भस्म हो जाते हैं, यह तप का निरुक्त है। ‘सोमदेवसूरि' के अनुसार"इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण करने, वश में करने या अंकुश लगाने का अनुष्ठान तप है।"
१. (क) तापयति अष्टप्रकारं कर्म इति तपः। -आवश्यक मलयवृत्ति, खण्ड २, अ. १ तापयति कर्मदहतीति तपः।
-पंचाशक वि. १६ (ख) तप्यते अणेण पावं कम्ममिति तपो।
-निशीथचूर्णि ४६ (ग) कर्मक्षयार्थं तप्यते इति तपः। कर्मदहनात्तपः।
-सर्वार्थसिद्धि ९/६/४१२/११; राजवार्तिक ९/१९/१८/६१९ (घ) जहा हु पावयं कम्मं राग-दोस-समज्जियं। खवेइ तवसा भिक्खू तमेगग्गमणो सुण॥
-उत्तरा., अ. ३0, गा.१ (ङ) तस्माद्वीर्य-समुद्रेकादिच्छा-निरोधस्तपो विदुः। बाह्यं वाक्काय-सम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम्॥
-मोक्ष-पंचाशत् ४८ (च) तपो मनोऽक्ष-कायाणां तपनात् संनिरोधनात्।
निरुच्यते दृगाद्याविर्भावायेच्छानिरोधनम्॥ -अनगार धर्मामृत ७/२/६५९
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