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ॐ प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ॐ ३३५ *
बनकर रहूँगा, मायाकपट करने-पाप छिपाने से स्त्रीवेद का भी बंधन हो सकता है। इस प्रकार सर्वतोमुखी विचार करके वह अपनी मानसिक तैयारी कर लेता हैआलोचना करने के लिए। आलोचना करने वाले की मनःस्थिति और योग्यता का चित्रण करते हुए शास्त्रों में उसके १0 गुण बताये हैं-(१) जाति-सम्पन्न (उत्तम जाति वाला), (२) कुल-सम्पन्न (कुलीन), (३) विनय-सम्पन्न, (४) ज्ञान-सम्पन्न, (५) दर्शन-सम्पन्न (श्रद्धागुण से ओतप्रोत), (६) चारित्र-सम्पन्न (निर्मल चारित्र वाला), (७) क्षान्त (क्षमाशील, सहिष्णु तथा धीर), (८) दान्त (इन्द्रियनिग्रही), (९) अमायी (सरल-निश्छल), और (१०) अपश्चात्तापी (दोष स्वीकार कर लेने के बाद मन में पश्चात्ताप न करने वाला)। इन दस गुणों से सम्पन्न व्यक्ति पहले तो पाप-दोष करने की ओर कदम बढ़ायेगा नहीं, कदाचित् लाचारी या परिस्थितवश अज्ञान या भूल से किसी पाप, दोष या अपराध के कर लेने पर उसका मन तुरन्त गुरु आदि के समक्ष दोष स्वीकृति एवं तदनुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिए उद्यत हो जायेगा।
आलोचनादि-सम्मुख व्यक्ति भी आराधक है : क्यों और कैसे ? आलोचना की भावना का माहात्म्य बताते हुए ‘आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया है-कोई साधक अपने कृत पापों की आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिए गुरु आदि के पास जा रहा है, किन्तु यदि रास्ते में ही किसी आकस्मिक कारण से उसकी मृत्यु हो जाये, ऐसी स्थिति में वह आलोचनादि-सम्मुख साधुक प्रायश्चित्त ग्रहण किये बिना ही आराधक है, क्योंकि उसकी भावना सरल और पश्चात्ताप की थी।
आलोचना से आध्यात्मिक उपलब्धियाँ आलोचना कर लेने से व्यक्ति को क्या लाभ होता है ? इस सम्बन्ध में भगवान महावीर कहते हैं-"आलोचना से मोक्षमार्ग में विघ्नकारक एवं अनन्त संसार-परिवर्द्धक मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य (तीक्ष्ण काँटों) को निकाल देता है और ऋजुभाव (सरलता) को प्राप्त होता है। ऋजुभाव-प्राप्त जीव मायारहित (निश्छल-निष्कपट) हो जाता है। फलतः वह जीव अमायी होकर स्त्रीवेद
और नपुंसकवेद कर्म का बंध नहीं करता, पहले बँधा हुआ हो तो उसकी निर्जरा (क्षय) कर लेता है।'' 'ओघनियुक्ति' के अनुसार-"जो साधक गुरुजनों के समक्ष
.. १. भगवतीसूत्र, श. २५, उ. 9; स्थानांगसूत्र, स्था. १०
२. आलोयणा-परियाओ सम्मं संपट्टिओ गुरुसगासं। - जइ अंतरो उ कालं, करेज्ज आराहओ तहवि।।
-आवश्यकनियुक्ति ४
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