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ॐ भेदविज्ञान की विराट् साधना 8 ४५१ ॐ
अविनाशी आत्मा के प्रति लापरवाही की कैसी करुण दशा है, कर्ममुक्ति के तथा आत्म-भावस्थिति के लक्ष्य से विहीन या लक्ष्यभ्रष्ट, सम्यग्दर्शन से रिक्त, सम्यग्ज्ञान से रहित, सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तप के आचरण से दूर शरीरमुग्ध, संसारमुग्ध, विषयमूढ़ मानव की? जो शरीर अपने सभी उपकरणों के सहित नाशवान् है, क्षणभंगुर है, उसकी तो इतनी चिन्ता और जो आत्मा अविनाशी है, नित्य है, अजर-अमर है, मोक्ष-प्राप्ति के लिए माध्यम है, परमात्म-सम है, उसकी कोई चिन्ता नहीं, परवाह नहीं, कोई चिन्तन नहीं, उसकी पूजा-अर्चा का?
जिस विनाशी शरीर के लिए रात-दिन कड़ी मेहनत करके, कठोर कष्ट सहन करके, भूख-प्यास सहन करके इतना धन जुटाया, अपार भोगोपभोग के साधन जुटाए, मकान, बाग, बंगले खड़े किये, माता-पिता, पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि से ममत्व-सम्बन्ध जोड़ा, शरीर की सुरक्षा के लिए हर सम्भव उपाय किया, वह शरीर मृत्यु के बाद जलकर राख हो जाता है; जिंदगीभर शरीर के लिये इकट्ठी की हुई सामग्री यहीं धरी रह जाती है और अकेली अविनाशी आत्मा परलोक की यात्रा के लिए रवाना हो जाती है।'
स्वामी रामतीर्थ जब पहली बार जापान गये और वहाँ उन्होंने एक घटना का विवरण अपनी डायरी में इस प्रकार अंकित किया था
जापान भूकम्प का देश है।'' यहाँ मकान अधिक ऊँचे नहीं हैं। बहुत गहरे भी नहीं हैं। मकानों में लकड़ी का अधिक उपयोग। जिनके घर में मैं ठहरा था, उनके मकान में अचानक आग लगी। रात का समय। हक्के-बक्के होकर हम सब नीचे उतर आए। सुन्दर से सुन्दर फर्नीचरों से सुसज्जित यह मकान धू-धूकर जल रहा था। आग की ज्वालाएँ मानो आकाश को छूने का प्रयत्न करती थीं। मकान-मालिक असहाय होकर एक ओर खड़ा-खड़ा यह सब देख रहा था।
सहसा आग बुझाने वाली दमकलें आ पहँची। दमकल-कर्मचारियों में से एक दमकल-कर्मचारी इस मकान-मालिक के पास आया और उसने पूछा-“सेठ ! मकान के पीछे का भाग अभी तक आग से मुक्त है। अगर वहाँ से कोई 'महत्त्वपूर्ण वस्तु लानी हो तो कहिये हम अन्दर जाकर ले आएँ। "
१. देखें-उत्तराध्ययन ४/२ की यह गाथा--
जे पावकम्मेहिं धणं मणुस्सा, समाययंति अमयं गहाय। पहाय ते पास-पयट्ठिए नरे, वेराणुवद्धा नरयं उर्वति॥
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