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४५४ कर्मविज्ञान : भाग ७
शरीर और शरीर-सम्बद्ध पदार्थों को लेकर आए दिन अज्ञानी मनुष्य प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों में से एक या दूसरे का सेवन करता है। शरीर को लेकर ही मानव जाति, कुल, बल, तप, लाभ, श्रुत, ऐश्वर्य आदि का मद (अहंकार) करके दूसरों का तिरस्कार करता है, अहंकार - ममकार से या हीनभावना से लिप्त हो जाता है। शरीर के रहने पर ही मनुष्य सात प्रकार के भयों से भयभीत होता है, स्वयं भी निर्भयता की स्थिति प्राप्त नहीं कर पाता और दूसरों को भी भयभीत, आतंकित एवं पराभूत करता रहता है। शरीर के कारण ही आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, कामवासनासंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा तथा क्रोधादि कुल दस प्रकार की . संज्ञाओं, महत्त्वाकांक्षाओं, वृत्तियों और कामनाओं से पीड़ित होता रहता है । शरीर के कारण ही आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान के चक्कर में पड़कर धर्म - शुक्लध्यान से तथा आध्यात्मिक विकास से, आत्म-भावों में रमण से वंचित हो जाता है । शरीर से सम्बन्ध होने के कारण कषायानुरंजित निकृष्ट कृष्णादि लेश्याओं - दुर्वृत्तियों और दुर्भावनाओं से आक्रान्त होता रहता है। शरीर के कारण ही राग-द्वेष तथा कषाय- नोकषायों से बार-बार आत्मा आहत होती रहती है। शरीर और शरीर-सम्बन्धित पदार्थों के लिए ही आरम्भ - समारम्भ करता है, धन और साधनादि येन-केन-प्रकारेण अर्जित करता है और उनकी आवश्यकताओं के लिए नाना झूठ - फरेब, छल-प्रपंच करता है। शरीर से सम्बद्ध मन और इन्द्रियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में एवं पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्तिपूर्वक बार-बार रमण करने में ही प्रायः सारा जीवन पूरा कर देता है। ऐसी स्थिति में न तो वह आत्मा की क्षमता, सामर्थ्य और शक्ति बढ़ा पाता है, न ही आत्मिक आनन्द प्राप्त कर पाता है और न ही विषय सुखों से हटकर तथा मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान से दूर रहकर आत्मिक ज्ञान-दर्शन ( सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन) और सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप की भलीभाँति साधना-आराधना कर पाता है। साथ ही शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों के प्रति आसक्ति और मोह के कारण भोगविलास, सुखोपभोग एवं सुविधाभोग में डूबकर एवं पेट, प्रजनन और शरीर शुश्रूषा में ही अपनी पूरी जिंदगी व्यतीत कर देता है। जो मानव-शरीर आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए मिला था, वह लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पाता। यही कारण है कि कर्म - विमुक्ति के मार्गदर्शक महर्षियों ने शरीर और शरीर-सम्बद्ध पदार्थों से आत्मा को पृथक् मानने-जानने और अनुभवपूर्वक आचरित करने का विधान किया है।
शरीर से आत्मा को पृथक् करने का तात्पर्य
ऐसी स्थिति में दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि पृथक् कर देने पर व्यक्ति सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र - तप की तथा क्षमा, दया, समता आदि धर्मों की साधना
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