________________
४६८ ४ कर्मविज्ञान : भाग ७
उपहास करने पर या दुर्घटनाग्रस्त होने पर भेदविज्ञानी मानव सर्वप्रथम आत्म-भावों का या आत्म-गुणों का ही ध्यान या चिन्तन करेगा। गाली, अपशब्द, अपमान, बदनामी या उपहास करने से मेरे आत्म - गुणों का, आत्म-भावों का या आत्मा के स्वभाव का नाश नहीं हो जाएगा। उन्हें समभाव से सहने पर आत्मा कर्ममल से रहित होकर चमकेगी । रोगादिं आतंक या पीड़ा भी शरीर को हो रही है, आत्मा तो निरोग है, पीड़ारहित है, वह तो अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अशोष्य है, वह अविनाशी है। ये पीड़ा या रोगादि आतंक शरीरादि के साथ अभिन्न सम्बन्ध मानकर मेरी आत्मा ने ही अशुभ कर्मबंध कर पैदा किये हैं । यह पीड़ा दूसरा कोई नहीं दे रहा . है, न भगवान दे रहा है, न कोई शत्रु ही; अपितु मेरे ही पूर्व-जन्म के या इस जन्म के किसी कर्म का फल है ।
भेदविज्ञान से सर्वकर्ममुक्ति-सिद्धि कैसे प्राप्त होती है ?
किसी के द्वारा अपने पर प्रहार, संहार, अपहार, ताड़न-तर्जन आदि किये जाने पर भी भेदविज्ञानी यही सोचता है - " ये सब तो मेरे शरीर से सम्बद्ध भले ही हों, मेरी आत्मा तो ऐसे प्रहार, संहार आदि से कभी नष्ट होने वाली नहीं है। मेरी आत्मा का ये प्रहारादि क्या बिगाड़ सकते हैं ? भले ही ये प्रहार मेरे शरीर को नष्ट कर दें। शरीर तो एक दिन नष्ट होने वाला ही है। स्कन्दक मुनि ( श्रावस्ती के खंधककुमार मुनि) के ५०० शिष्यों को जब पालक मंत्री द्वेषवश क्रमशः कोल्हू में पिरवाने लगा, तब स्कन्दक मुनि प्रत्येक शिष्य को आत्म-समाधि में लीन रहने और भेदविज्ञान का चिन्तन करने का प्रतिबोध देते थे । प्रत्येक शिष्य कोल्हू में पीले जाते समय भेदविज्ञान का चिन्तन करते-करते - देहादि के जन्म-मरण से मुक्त होकर सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध बन गए थे। इसी प्रकार उसे स्कन्दक मुनि के ५०० शिष्यों का, गजसुकुमाल मुनि का एवं अर्जुन मुनि, चिलातीपुत्र आदि भेदविज्ञानी साधकों के चरित्र का अनुप्रेक्षण करना चाहिए । इसीलिए एक जैनाचार्य ने कहा है“भेदविज्ञानतः सिद्धाः, ये सिद्धाः किल केचन।”
- जो कोई भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा (परम विशुद्ध आत्मा) हुए हैं, वे सभी भेदविज्ञान से ही हुए हैं। अर्थात् भेदविज्ञान को छोड़कर कोई भी सर्वकर्ममुक्त सिद्ध नहीं हो सका।
भेदविज्ञान 'अस्व' को 'स्व' से
होने से दुःखी नहीं होता
पृथक्
Jain Education International
करने या
भेदविज्ञान ' अ स्व' - जो अपना स्वरूप
स्व-भाव नहीं है, उसे पृथक् करता है | क्योंकि वह (अव) अनित्य है, नाशवान है । अनित्य कभी टिकता नहीं, फिर
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org