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* भेदविज्ञान की विराट् साधना ४६७
सरसराता हुआ चला गया। प्रार्थना समाप्त होने के बाद रावजीभाई ने गांधी जी से पूछा - " बापू ! साँप जिस समय आपकी पीठ पर चढ़कर चादर के नीचे घुस रह था, उस समय आपके मन में घबराहट या भीति नहीं हुई?" गांधी जी ने कहा"मुझे उस साँप को देखकर रंचमात्र भी घबराहट नहीं हुई । न ही मौत का डर हुआ। क्योंकि गीता में आत्मा को अजर-अमर, अविनाशी कहा है। मैं तो उस समय देहाध्यास छोड़कर भगवद्भाव में डूब गया था । "
जब काशी - नरेश देहभाव से ऊपर उठ गए थे
काशी - नरेश के शरीर में कोई फोड़ा हो गया था। डॉक्टरों ने ऑपरेशन कराने की सलाह दी। वे इसके लिए तैयार हो गए, परन्तु शर्त यह रखी कि मुझे क्लोरोफॉर्म न सुँघाया जाय, मैं उस समय भगवद्गीता में तल्लीन हो जाऊँगा, ऐसा ही हुआ। ऑपरेशन के समय वे गीता में इतने तन्मय हो गए कि उन्हें पता भी न लगा कि शरीर में क्या हो रहा है? सचमुच, वे देहभाव से ऊपर उठ चुके थे ।
भेदविज्ञान का आसान तरीका : अन्य विचारों में मग्न हो जाना
इससे भेदविज्ञान का एक तरीका स्पष्ट सूचित होता है कि जब शरीरभाव आए या देहाध्यास मन में जगने लगे, तब दूसरे किसी सुविचार में तल्लीन हो जाए, तो शरीर पर होने वाली पीड़ा, भूख-प्यास आदि के विचारों से तुरंत हटकर अन्य किसी आवश्यक कृत्य के विचार में निमग्न हो जाए तो शरीर - सम्बन्धित विचार शीघ्र ही रफूचक्कर हो जाएँगे ।
आत्म-भावों में निमग्न होने से शरीर की आवश्यकताओं से मन हट जाता है।
प्रश्न होता है - धन्ना अनगार, भगवान महावीर स्वामी, शालिभद्र मुनि आदि . महान् तपोमूर्ति श्रमणों ने लम्बी-लम्बी तपस्याएँ कीं, क्या उन्हें भूख नहीं सताती थी ? आचार्य समाधान करते हैं कि वे शरीरभाव से ऊपर उठकर आत्म-भावोंआत्म- गुणों के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते थे कि उन्हें शरीर की भूख-प्यास या अन्य आवश्यकताओं का कुछ भान या अनुभव भी नहीं होता था। बड़े-बड़े भौतिकविज्ञान के आविष्कारकों को भी भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की भी कोई 1. अनुभूति नहीं होती थी । वे अपने प्रयोग में इतने तल्लीन हो जाते थे कि उन्हें भी शरीर की आवश्यकताओं को पूरी करने की इच्छा या तलब ही नहीं उठती थी ।
रोग, आतंक या पीड़ा की स्थिति में भेदविज्ञानी का चिन्तन शरीर में पीड़ा होने पर, रोगादि आतंक होने पर या किसी दूसरे के द्वारा दोषारोपण करने, बदनाम करने अथवा कालाकलूटा, टेढ़ा-मेढ़ा शरीर देखकर
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