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ॐ ४७० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
भिन्नता को भलीभाँति समझकर अपनी धर्माराधना में लग गया था। परन्तु एक बार वह पौषधशाला में पौषधव्रत में लीन था, तब उसके भेदविज्ञान की कसौटी हुई। प्रदेशी राजा की रानी सूरिकान्ता ने उन्हें धर्म-साधना से विचलित करने का भरसक प्रयत्न किया। जब वह अपने प्रयत्न में सफल न हुई तो भोजन में विष मिलाकर मारने का षड्यंत्र रचा। राजा के पौषधव्रत के पारणे के दिन रानी स्वयं विष-मिश्रित भोजन लेकर उन्हें पारणा कराने आई। भोजन का कौर लेते ही प्रदेशी राजा को ज्ञात हो गया कि इस भोजन में विष मिलाया गया है। अतः प्रदेशी राजा ने न तो रानी पर किसी प्रकार द्वेष-रोषभाव किया और न ही अपने शरीर पर किसी प्रकार का ममत्व या रागभाव किया। उनके अन्तर में चिन्तन स्फुरित हुआ। --"रानी मुझे नहीं, मेरे कर्मों को विष देकर, उदय में आए हुए मेरे पूर्वकृत पापकर्मों को काटने-नष्ट करने में सहायक हो रही है और फिर मैंने केशीश्रमण गुरुदेव से शरीर की अनित्यता और आत्मा की नित्यता का भेदविज्ञान भलीभाँति समझ लिया है। अतः मुझे शरीर के नष्ट होने पर अपना (आत्मा का) नाश नहीं समझना है, शरीर के नाश से दुःखी भी नहीं होना चाहिए।" इस प्रकार भेदविज्ञान : के उज्ज्वल प्रकाश में प्रदेशी नृप ने उस मरणान्त कष्ट को समभावपूर्वक सहन . किया और एकमात्र आत्म-समाधि में लीन होकर मृत्यु का वरण किया। इस समाधिमरण के फलस्वरूप वे मरकर सूर्याभ नामक देव बने।, ' भेदविज्ञान के अभ्यास से संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति
इस प्रकार भेदविज्ञान की प्रक्रिया एवं अभ्यास के दौरान आने वाले साधक-बाधक तत्त्वों को भलीभाँति समझकर जीवन के दैनन्दिन कार्यकलापों में व्यक्ति उसका अभ्यास करे तो वह आते हुए कर्मों (आस्रवों) का निरोध (संवर) भी कर सकता है, अशुभ योगों-सावद्य योग प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर शुभ योग-संवर भी अर्जित कर सकता है, अयोग-संवर की दिशा में भी आगे बढ़ सकता है तथा आने वाले कष्टों, परीषहों और उपसर्गों को भेदविज्ञानपूर्वक समभाव से सहन करके कर्मों से आंशिक मुक्ति और कदाचित् सर्वकर्ममुक्ति भी प्राप्त कर सकता है।
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