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* भेदविज्ञान की विराट् साधना ® ४५९ ॐ
प्रयोजन जानकर उन्हें यम-नियम का पालन करते हुए रहने को कहा। अवधि पूर्ण होने पर एक दिन प्रजापति ने दोनों को बुलाकर कहा-"दर्पण में या जल में अपनी छवि देखो; फिर छवि देखने वाले नेत्रों को देखो, नेत्रों की पुतलियों के बिन्दु के भीतर प्रविष्ट होकर यह पहचान करो कि यह भीतर कौन, क्यों और कैसे देखता है ? तत्पश्चात् यह निर्णय करो कि यह जो देखता है, वही आत्मा है, जो सर्वत्र व्याप्त है, तुम्हारे इस शरीर में भी।" यह सुनकर दोनों अपने-अपने ढंग से साधना करने लगे। विरोचन ने तरह-तरह से दर्पण देखा। उसने अपनी वेशभूषा, केशविन्यास तथा सौन्दर्य प्रसाधनों से साज-सज्जा में परिवर्तन करके कई बार दर्पण में देखा। उसे अपनी सुडौल देहयष्टि, मनोहर मुखमण्डल एवं सुन्दर चेहरा ही ध्यान में आया। अतः उसने यही मान लिया कि यह शरीर ही आत्मा है। इसे ही तरह-तरह से सजाना, इसी की तुष्टि-पुष्टि में लगे रहना, स्वादिष्ट खानपान से इसे ही तृप्त करना, विविध सुख-साधनों का उपभोग करना ही इसे सुखी करना ही आत्म-ज्ञान है।" विरोचन शरीर ही आत्मा है, इस मान्यता को ही पूर्ण मानकर, सन्तुष्ट होकर चल पड़ा अपने दल में मिलने के लिए। वहाँ दल के सभी असुरगण विरोचन से आत्मा का ज्ञान जानने को उत्सुक थे। विरोचन ने उनसे कहा-“यह शरीर ही आत्मा है। बस, इसे ही खिलाओ, पिलाओ, पुष्ट बनाओ, खूब सजाओ, वस्त्राभूषण से मण्डित करो, सुखोपभोग करो, मौज उड़ाओ। इसी की प्रशंसा करो और इसी की आराधना करो।"
बस, उसी दिन से असरगण शरीर को आत्मा समझकर उसे ही खिलानेपिलाने, तुष्ट-पुष्ट करने, सजाने-सँवारने और सुखोपभोग करने में लग गये। वे अहर्निश शरीर की तथा शरीर से सम्बन्धित परिवार, धन, सुख-साधन आदि सजीव-निर्जीव वस्तुओं के प्रति चिन्ता, आसक्ति और लालसा करने लगे। फलतः आज तक आसुरीवृत्ति वाले लोग भौतिकता, शरीर-सुखभोगाकांक्षा, इन्द्रियविषय-सुखलिप्सा, तुच्छ स्वार्थसिद्धि तथा हिंसादि पापों में संलग्न हैं। वे अपने और अपनों के लिए सर्वत्र कलह, क्लेश करते हैं, असहिष्णु और निकृष्ट अहंत्वममत्वयुक्त जीवन जीते हैं। किन्तु देवों के प्रतिनिधि इन्द्र को प्रजापति के उक्त समाधान से सन्तोष न हुआ। इन्द्र ने कई बार दृष्टि जमाई, परन्तु पुतलियों में उसे कुछ नहीं दीखा। वह पुनः आत्मा से सम्बन्धित जिज्ञासा लेकर प्रजापति के समक्ष उपस्थित हुआ। प्रजापति ने उसे विशिष्ट तप करने का आदेश दिया। अवधि पूरी होने पर कहा-“इन्द्र ! यह ज्ञान करो कि स्वप्नावस्था में यह जो तुम्हारी तरह क्रियाएँ करता है, वह कौन है? इन्द्र ने तुलनात्मक अध्ययन के बाद पाया कि जाग्रतावस्था और स्वप्नावस्था में एक ही सचेतन आत्मा कर्ता है। किन्तु कई बार प्रगाढ़ निद्रा में चेतन अबोध (ज्ञात नहीं) होता है, उसे आत्मा कैसे माना जाए?"
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