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* ४५८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
आत्म-स्वरूप की ज्योति को बुझा देगा। आत्म-स्वरूप एवं आत्मा के अनन्तचतुष्टय गुणों की ज्योति को प्रज्वलित रखने के लिए अहर्निश भेदविज्ञान की मशाल जलाए रखना आवश्यक है। शरीरदृष्टि बहिरात्मा कर्मलिप्त एवं दुर्लभबोधि बन जाएँगे
दूसरी बात-भेदविज्ञान नहीं होगा, वहाँ तक शरीर और आत्मा इन दोनों में से व्यक्ति की दृष्टि में शरीर ही प्रधान रहेगा, वही उसे प्रत्यक्ष दृश्यमान होने के कारण महत्त्वपूर्ण लगेगा। बल, बुद्धि, इन्द्रिय, मन, वचन आदि शक्तिशाली अवयवों से सम्पन्न शरीर ही साक्षात् दृष्टिगोचर होने से वह अहर्निश इसी की तुष्टि, पुष्टि, . फरमाइशों की पूर्ति और तृप्ति में लगा रहेगा। आत्मा गौण हो जाने से उसकी उन्नति, विकास, गुणवृद्धि आदि की चिन्ता बिलकुल नहीं रहेगी। इस प्रकार बहिरात्मा बने हुए शरीरदृष्टि मानव मिथ्यात्वी बनकर अनेकविध अशुभ कर्मों से लिप्त होता जाएगा, फिर उन मानवों को बोधि (सद्बोध-सम्यग्दृष्टि) मिलनी भी अतिदुर्लभ हो जायेगी। भेदविज्ञान से रहित और युक्त के आचरण में कितना अन्तर ? . ..
भेदविज्ञान अन्तरात्मा बना हुआ आत्म-दृष्टि जीव किस प्रकार शरीरादि में आसक्त नहीं होता और बहिरात्मा बना हुआ शरीरदृष्टि जीव किस प्रकार अतिभोग-परायण हो जाता है ? इसे वैदिक पुराण के एक उदाहरण से समझना ठीक होगा
प्रजापति (ब्रह्मा जी) ने एक बार घोषणा की-“तुम्हें सर्वांगपूर्ण शरीर मिला है, लेकिन तुम शरीर नहीं हो; तुम्हें बुद्धि मिली है, लेकिन तुम बुद्धि नहीं हो; तुम जो हो-उस आत्म-तत्त्व के ज्ञान के बिना सुखी नहीं रह सकोगे; क्योंकि आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है। वही सत्य एवं सनातन है। प्राणी का लक्ष्य भी वही (आत्मोपलब्धि) है। अतः विपुल साधनों के स्वामी होकर भी आत्म-विमुख न होना। समस्त समस्याओं का हल आत्मा ही कर सकेगी।"
इस घोषणा को सुनकर देव और असुर दोनों आत्मा को जानने के लिए आतुर हो उठे। देवों ने इन्द्र को और असुरों ने विरोचन को अपना प्रतिनिधि बनाकर प्रजापति के पास भेजा। प्रजापति ने स्वागत के अनन्तर उनके आगमन का
१. (क) मिच्छादसणरत्ता सनियाणा उ हिंसगा (कण्हलेसमोगाढा)॥२५५॥ इअ जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही॥२५७॥
-उत्तराध्ययन, अ.३६, गा. २५५, २५७ (ख) बहुकम्मलेव लित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं। -वही, अ. ८, गा. १५
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