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ॐ ४६२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
रुचि और अभ्यास नहीं है, वह बहिरात्मा बनकर शरीर को ही 'मैं' समझकर जिंदगी के अथ से लेकर इति तक व्यवहार करता है। उसके जीवन की गाड़ी अपने . पूर्वोक्त सभी अवयवों को साथ लेकर शरीर ही धकेलता है। ऐसे शरीरमोही व्यक्ति की सारी पुण्योपार्जित कमाई अथवा स्थूल धनादि पदार्थों के रूप में अर्जित कमाई, . शरीर ही अपने लिये खर्च करा डालता है। ऐसे शरीरमोही या शरीरभाव से ग्रस्त लोग देहाध्यास या शरीरासक्ति से ऊपर नहीं उठ पाते। शरीरासक्त मानव का सारा जीवन शरीर-चिन्तन में
फिर वह शरीरासक्त मानव शरीर की ही सेवा-शुश्रूषा में, उसे ही पोसते रहने .. में अपना सारा जीवन व्यतीत कर देता है। वह आत्मा के विषय में शास्त्रों और ग्रन्थों में लिखी लम्बी-चौड़ी बातें करता है, आत्मा की नित्यता, अनश्वरता एवं शरीर की अनित्यता, विनश्वरता की बातें खूब बघारता है; किन्तु रहेगा वहीं का . वहीं शरीरासक्ति एवं देहाध्यास के घेरे में ही। शरीर को जरा-सा कुछ हुआ तो वह अत्यन्त चिन्तित, व्यथित होकर उसका हर सम्भव निवारण करने के लिए तत्पर रहेगा, शरीर पर किसी ने जरा-सा प्रहार कर दिया या उपहार दे दिया या इस . शरीर की किसी ने निंदा या प्रशंसा कर दी, सम्मान या अपमान कर दिया तो शरीर को 'मैं' समझने में अभ्यस्त व्यक्ति या वाणी विलास करने वाले व्यक्ति के मन पर शीघ्र ही उसकी प्रतिक्रिया खिन्नता या प्रसन्नता के रूप में, हर्ष-शोक के रूप में या प्रिय-अप्रिय के रूप में अथवा आसक्ति या घृणा के रूप में होती है। शरीरवादी की मनोवृत्ति
फिर अपने माने हुए परिवार, जाति, गोत्र, वर्ण, धर्म-संम्प्रदाय, पंथ, मत, प्रान्त, राष्ट्र या भाषा आदि परिकर भी शरीर-यात्रा की परिधि में आ जाते हैं। इसलिए शरीर को आत्मा से अभिन्न मानने वाले या शरीर को 'मैं' समझने वाले शरीरासक्त, देहाध्यासी मानव अथवा अध्यात्म का केवल वाग्विलास करने वाले लोग अपने माने हुए परिवार, सम्प्रदाय, मत, पंथ, भाषा, प्रान्त, राष्ट्र या राजनैतिक पक्ष, दल आदि के लिए लड़ने-मरने और एक-दूसरे पर शस्त्र-प्रहार करने तक या बदनाम करने तक तैयार हो जाते हैं। इतना ही नहीं, एक ही धर्म-सम्प्रदाय में विभिन्न फिरकों में एक-दूसरे के प्रति इसी शरीर से सम्बन्धित परिकरों के प्रति 'मैं' पन तथा ‘मेरा' पन के कारण मनोमालिन्य, आक्षेप-प्रत्याक्षेप, मुकदमेबाजी, लड़ाई-झगड़ा आदि करते रहते हैं, दिगम्वर-श्वेताम्बर, सिया-सुन्नी, हीनयान-महायान, शैव-वैष्णव आदि के झगड़े इसी के परिणाम हैं। इसी 'अहं' के पोषण के लिए हैं, न्यायसंगत वात के लिए नहीं, किन्तु अन्यायसंगत-अन्याय अनीतियुक्त बात या तुच्छ अहं पोषण की बात के लिए अथवा अपनी झूठी
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