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• ४५६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ .
यों तो कोई साधक शरीर से छूटने के लिए झंपापात कर ले, दम घोंट ले, जल-समाधि ले ले या मिट्टी के नीचे दबकर मर जाए, इस प्रकार आत्महत्या करके. शरीर छूटने को शरीर और आत्मा की भिन्नता का ज्ञान या अभ्यास नहीं कहा जा सकता अथवा किसी आवेश, रोष, लड़ाई या युद्ध आदि में शरीर का त्याग कर देने से भी शरीर से छुटकारा (पृथक्त्व) नहीं हो सकता। उससे घोर कर्मबन्ध होकर पुनः-पुनः शरीर धारण करना पड़ेगा। जब तक आयुष्य नामकर्म का कार्मण शरीर है तब तक भी शरीर से छुटकारा नहीं हो सकता। इसलिए शरीरादि से. अहंत्व-ममत्व छोड़ देने से ही सच्चे माने में भेदविज्ञान हो सकता है। ___ सौ बातों की एक बात है कि शरीर आदि जो बहिर्मुखी हो रहे हैं, उन्हें अन्तर्मुखी करना है। शरीर के प्रति अहंत्व-ममत्व की भावना के कारण आत्मा बहिरात्मा बनी हुई है, उसे उस भावना से विरत करके अथवा अन्यत्वभावना से
ओतप्रोत करके अन्तरात्मा बनाना है और परमात्मपद-प्राप्ति की साधना में लगाना है। मोह-ममत्व-प्रेरित जो सम्बन्ध है, उसे शरीर और आत्मा के पृथक्-पृथक् धर्म का . विचार करके भेदविज्ञान की भावना से तोड़ना है। यही भेदविज्ञान का आशय है। भेदविज्ञान का स्पष्ट और विशद अर्थ __ संक्षेप में-भेदविज्ञान का सीधा-सा अर्थ है-यह शरीर 'मैं' हूँ (तथा शरीर-सम्बद्ध वस्तुएँ मेरी हैं), इस प्रकार का जो जन्म-जन्मान्तर का संस्कार है, उसे तोड़ना और शरीर भिन्न है, मैं (आत्मा) भिन्न हूँ, दोनों का भिन्न-भिन्न धर्म या स्व-भाव है, इस प्रकार की भिन्नता का अनुभव होना, उसका अभ्यास करना और संस्कारों में सुदृढ़ करना ही भेदविज्ञान है। 'प्रवचनसार' में भेदविज्ञान का तात्पर्य समझाते हुए कहा गया है-“मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी (वचन) हूँ, न इनका कारण हूँ। मैं इनका कर्ता नहीं हूँ, न कराने वाला हूँ और न ही कर्ता का अनुमोदक हूँ।" भेदविज्ञान न होने पर आत्मा की कितनी अधोगति ?
इस प्रकार का भेदविज्ञान न होने पर शरीर, मन, वचन, इन्द्रियाँ आदि सब आत्मा की ऊर्ध्वगति-प्रगति में बाधक बन जाते हैं। सर्वप्रथम शरीर को ही लें। आत्मा तो प्रत्यक्ष नजर नहीं आती, शरीर ही सर्वप्रथम और सर्वाधिक दृष्टिगोचर होता है। ऐसी स्थिति में तत्त्वज्ञान या भेदविज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति शरीर को ही 'मैं' समझने लगता है, उसकी दृष्टि आत्मा की ओर प्रायः जाती ही नहीं। उसे यह ज्ञान-भान भी प्रायः नहीं रहता कि शरीर मरणधर्मा है, विनाशी है, शरीर में सुषुप्त आत्मा अमरणधर्मा, अविनाशी है। तब वह शरीर को ही सर्वस्व मानकर उसी को पालने-पोसने, सशक्त, पुष्ट बनाने तथा उसे ही सब तरह सुखोपभोग की सुविधा
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