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* ३४६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ *
आत्म-गुणों में निष्ठा, भक्ति और बहुमानपूर्वक प्रवृत्ति होना, सम्यग्ज्ञानादि में विशिष्ट पराक्रम करना, सुविशुद्ध परिणाम रखना। (२) आत्म-गुणों की प्राप्ति में बाधक कषायों और इन्द्रिय-विषयों, अशुभ योगों तथा राग-द्वेषादि के कारण बँधे हुए पाप-कर्ममलों को तथा रत्नत्रय के अतिचारों (दोषों) को हटाना, नष्ट करना। (३) ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणों में आगे बढ़े हुए तथा इनके शिखर पर पहुँचे हुए आचार्यादि गुरुओं के प्रति भक्ति, बहुमान, आदर, नम्रता, धारण करना, उनके अनुशासन में रहना। अहं की गाँठ खुले बिना कोई तार नहीं सकता ___ मनुष्य कितना ही पढ़-लिख ले, कितनी ही भौतिक विद्याओं, विविध भाषाओं को जान ले और कितने ही शास्त्रों को घोंट ले, जब तक उसकी अहं की व मद और अभिमान की गाँठ न खुले, जब तक उसमें विनय, बहुमान और नम्रता के परिणाम न आएँ, तब तक वे विद्याएँ, शिक्षाएँ, भाषाएँ और शास्त्र उसे तार नहीं सकते, न ही त्राण दे सकते हैं और न उसे ज्ञानादि या ज्ञानादि के श्रेष्ठ साधक ही तार सकते हैं। विनय के सात प्रकार और इन सबमें अहंकार बाधक
स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र तथा औपपातिकसूत्र में विनय के सात प्रकार बताए गये हैं। यथा-(१) ज्ञानविनय, (२) दर्शनविनय, (३) चारित्रविनय, (४) मनोविनय, (५) वचनविनय, (६) कायविनय, और (७) लोकोपचारविनय।' ____ 'तत्त्वार्थसूत्र' में ज्ञान-दर्शन-चारित्र और उपचारविनय, .यों ४ ही प्रकारों में गतार्थ कर दिये हैं। विनय के इन सातों ही प्रकारों में सर्वत्र अहंकार-विसर्जन का स्वर ही मुखर प्रतीत होता है। इन सातों में ही अहं बाधक बनता है। अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति सम्यग्ज्ञान को स्वीकार नहीं कर पाता। वह अपने जाने-माने और परम्परा से गृहीत गलत बात को भी पकड़े रहता है। मेरा सो सच्चा'; यही उसका अहंग्रस्त स्वर होता है, 'सच्चा सो मेरा' इस सत्यतथ्य को स्वीकार करने से वह कतराता है। अहं से ग्रस्त व्यक्ति की दृष्टि भ्रान्त और गलत होती है। अहं उसके सम्यग्दर्शन में भी बाधक बनता है। इसी प्रकार सम्यक्चारित्र = सत्याचरण में भी अहं बाधक बनता है। अहंकार मन की ऋजुता = भावों की सरलता एवं पवित्रता
१. (क) सत्तविहे विणए पण्णत्ते, तं जहा-णाणविणए, दसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए,
वइविणए, कायविणए, लोगोवयारविणए। -भगवतीसूत्र, श. २५, उ. ७ (ख) स्थानांगसूत्र, स्था. ७, उ. ५ (ग) औपपातिकसूत्र : तपोवर्णन
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