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निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ३४५
जो सुविशुद्ध • परिणाम होता है, वही उनका विनय है ।" 'सागार धर्मामृत' के अनुसार–“सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के दोषों को दूर करने के लिए मुमुक्षु जन जो कुछ विशिष्ट प्रयत्न या पुरुषार्थ (पराक्रम) करते हैं, उसे विनय कहते हैं और इस पुरुषार्थ में शक्ति को न छिपाकर यथाशक्ति आचरण करते रहना विनयाचार है ।" ' चारित्रसार' में कहा गया है - " कषायों और इन्द्रियों को नमाना–नम्र करना विनय है ।" 'राजवार्तिक' के अनुसार - " मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादि में तथा उनके साधक (निर्ग्रन्थ) गुरु आदि के प्रति अपनी योग्य रीति नीति के अनुसार आदर-सत्कारादि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनय - सम्पन्नता है।” 'प्रवचनसार वृत्ति' के अनुसार - " स्वकीय निश्चयरत्नत्रय की शुद्धि निश्चयविनय है और उनके आधारभूत आचार्य आदि के प्रति भक्ति के परिणाम व्यवहारविनय हैं।"""
'कषायपाहुड' के अनुसार - "गुणाधिक ( गुणवृद्ध) पुरुषों के प्रति नम्रवृत्ति रखना विनय है।” ‘धवला' के अनुसार - "रत्नत्रयधारक पुरुषों के प्रति नम्रवृत्ति धारण करना विनय है।” 'सर्वार्थसिद्धि' में भी कहा गया है - " पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय है । "२
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विनय के तीन अर्थ प्रतिफलित होते हैं
इन सब लक्षणों को देखते हुए विनय के मुख्यतया तीन अर्थ प्रतिफलित होते हैं- ( 9 ) आत्मा के निजी गुणों में आगत दोषों को दूर करना और सम्यग्ज्ञानादि १. (क) जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविहं चाउरंतमोक्खाय ।
तम्हा उ वयंति विउ विणयं ति विलीणसंसारा ॥ - स्थानांग, स्था. ६ वृत्ति (ख) विलयं नयति. कर्ममलमितिविनयः । -भगवती आराधना, वि. ३००/५११/२१ (ग) ज्ञान-दर्शन- चारित्र - तपसामतीचारा अशुभक्रियाः, तासामपोहनं विनयः । " - वही ६/१२/२३ (घ) दंसण णाण-चरित्ते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो । बारस भेदे वि तवे, सोच्चिय विणओ हवे तेसिं ॥ (ङ) सुदृग्धी-वृत्त-तपसा मुमुक्षोर्निर्मलीकृतौ ।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. ४५७
- सागार धर्मामृत ७/३५
यत्नो विनय, आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तु ॥ (च) कषायेन्द्रिय-विनयनं विनयः ।
- चारित्रसार १४७ / ५
(छ) सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्या सत्कार आदरः, कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता । - राजवार्तिक ६/२४/२/२२९
(ज) स्वकीय-निश्चय - रत्नत्रय शुद्धिर्निश्चयविनयः । तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनयः॥
२. (क) गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनयः । (ख) रत्नत्रयवत्सु नीचैर्वृत्तिर्विनयः । (ग) पूज्येष्वादरो विनयः ।
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- प्रवचनसार ता. वृ. २२५/३०६ - कषायपाहुड १/१-१/९०/११७
-धवला १३/५, ४/२६/६३ -सर्वार्थसिद्धि ९/२०/४३९/७
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