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* व्युत्सर्गतप: देहातीत भाव का सोपान ४४५
क्रोध-विसर्जन क्या किया, उसने आमरण अनशन स्वीकार कर शरीर का भी व्युत्सर्ग कर दिया। फलस्वरूप मरकर देवयोनि में पैदा हुआ । '
अहंकार-व्युत्सर्ग का प्रभाव
कूरगडूक मुनि उपवास आदि तप नहीं कर सकते थे । इसलिए सभी मुनि और आचार्य तक उसे झिड़कते थे, अपमानित करते थे । वे अपमान और कोप को भी समभाव से सहकर शान्त रहते थे। एक बार चातुर्मासिक चतुर्दशी के दिन सब साधुओं के व्रत था । कूरगडूक मुनि क्षुधापीड़ित थे । आचार्यश्री से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिये गए। कूर ( निकृष्ट अन्न) से पात्र भर लाये । आचार्य बहुत ही क्रुद्ध हुए, अपमानित किया। दूसरे मुनियों ने भोजनभट्ट कहकर उपहास किया। परन्तु कूरगडूक मुनि ने बिलकुल शान्त, स्वस्थ होकर भिक्षापात्र एक ओर रखे । कायोत्सर्ग किया - " मेरे कारण आचार्य श्री को तथा सभी साथी मुनियों को कष्ट हुआ। फिर समभावपूर्वक भोजन करते-करते आत्म ध्यान में लीन हो गए। क्षमा की तथा ध्यान की उज्ज्वलता की पराकाष्ठा थी । क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होते-होते उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। यह प्रभाव था अहंकार - व्युत्सर्ग का ।
दशार्णभद्र मुनि ने तथा मेघकुमार मुनि ने अहंकार - विसर्जन करके जगत् के समक्ष आदर्श उपस्थित कर दिया। भगवान महावीर के चरणों में सर्वांगपूर्ण समर्पण कर दिया। इसी प्रकार अन्य कई साधक - साधिकाओं ने कषायादि का व्युत्सर्ग किया, इसके भी अनेक उदाहरण आगमों और ग्रन्थों में मिलते हैं। 2
संसार - व्युत्सर्ग: क्या और कैसे हो ?
भाव-व्युत्सर्ग का दूसरा प्रकार है - संसार - व्युत्सर्ग। प्रत्येक प्राणी के जब तक कर्म रहते हैं, तब तक संसार रहेगा, यानी जन्म-मरणादि चलते रहेंगे । संसार का व्युत्सर्ग तब होगा, जब यह संसार (कर्मोपाधिक) बिलकुल नष्ट - समाप्त हो जाएगा, तेरहवें गुणस्थान के बाद। संसार - व्युत्सर्ग का तात्पर्य यही है, जिस कर्म के प्रभाव से यह संसार बढ़ रहा है, उसके प्रतिपक्ष में ऐसी साधना करना, जिससे संसार का आयुष्य कंम हो, घटे। ‘स्थानांगसूत्र' में ४ प्रकार का संसार बताया है - द्रव्य-संसार, क्षेत्र - संसार, काल-संसार और भाव-संसार ।
'महावीरचरियं' से संक्षिप्त
(ख) चण्डकोसिया ! बुज्झह बुज्झह
२. (क) देखें - कूरगडूक मुनि का वृत्तान्त आचारांग चूर्ण में
(ख) देखें - दशार्णभद्र मुनि का वृत्तान्त स्थानांग वृत्ति 90 में (ग) देखें - मेघकुमार मुनि का वृत्तान्त अ. १ में
१.
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