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भेदविज्ञान की विराट् साधना
मुख्यता किसकी और किसकी नहीं ?
एक विद्यालय की इमारत बहुत सुन्दर तीन मंजिली और विशाल बनी है। उसमें कोई भी विद्यार्थी पढ़ने के लिये आए या न आए, इसकी परवाह किये बिना उस बिल्डिंग का मालिक केवल विद्यालय की उस इमारत की ही सुरक्षा और सार-सँभाल करता रहे; उसे प्रतिदिन झाड़-पोंछकर, रगड़-रगड़कर साफ करता रहे और समय-समय पर रंग-रोगन कराता रहे, उसमें स्थान-स्थान पर कपड़े के बेनर लगवाए और उन पर विद्या की महिमा के सुवाक्य लिखवा दे । यथास्थान सुन्दर टेबल, कुर्सियाँ रखवा दे, परन्तु विद्यालय में एक भी विद्यार्थी या अध्यापक न आए तो उस व्यक्ति को हम बुद्धिमान् नहीं, बुद्धिहीन मानते हैं।
एक मन्दिर बहुत ही आलीशान बनाया गया हो, विशाल गुम्बज बना हो, ऊपर स्वर्णिम कलश से सुशोभित हो, दूर से ही मंदिर को देखने वाले की आँखें चकाचौंध हो जाएँ। किन्तु उस मन्दिर में भगवान की मूर्ति न हो। मंदिर का निर्माता यदि उस मंदिर की ही सुरक्षा और सार - सँभाल करने बैठ जाए। मंदिर के फर्श को खूब धोता, पोंछता, रगड़ता और साफ करता रहे, तो भगवान की मूर्तिविहीन उस मंदिर के निर्माता को कोई चतुर नहीं कहेगा, उसे मूर्ख - शिरोमणि ही कहेगा ।
उस डॉक्टर को कोई बुद्धिमान् नहीं कहेगा, जो दवाखाना खोलकर केवल उसी की सुरक्षा में लगा रहता है और विविध रोगों की दवाइयाँ ही इकट्ठी करता रहता है । उसमें चिकित्सा के लिये आने वाले रोगियों की परवाह नहीं करता । उनके रोगों का निदान, परीक्षण आदि करके उनकी चिकित्सा नहीं करता ।
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हम किसको मुख्यता दे रहे हैं ? : देहरूपी देवालय को या आत्म- देव को ?
निष्कर्ष यह है कि विद्यालय में मुख्यता विद्यार्थियों की होती है, विद्यालय की बिल्डिंग की नहीं; मंदिर में मुख्यता भगवान की मूर्ति की होती है, मंदिर के मकान की नहीं; तथैव हॉस्पिटल में मुख्यता रोगियों की चिकित्सा ही होती है, केवल
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