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ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति ॐ ४१३ ॐ
कि ध्यान में स्थिरता के परिपुष्ट हो जाने पर ध्येय का स्वरूप ध्येय के सन्निकट न होने पर भी स्पष्ट रूप से आलेखित जैसा प्रतिभासित होता है। जिस समय ध्याता ध्यान के बल से अपने शरीर को शून्य बनाकर ध्येय स्वरूप में आविष्ट या प्रविष्ट होकर अपने आप को तत्सदृश बना लेता है, उस समय उस प्रकार की ध्यान-संवित्ति से भेद-विकल्प को नष्ट करता हुआ वही (भाव से) परमात्मा, गरुड़ या कामदेव हो जाता है।
पदस्थध्यान-पद का अर्थ है-अक्षर। अक्षरों पर मन को स्थिर करना पदस्थध्यान है। इसमें अहँ, णमो अरिहंताणं आदि किसी भी एक पदसमूह पर या (अ, आ आदि) एक अक्षर पर या मंत्र पदों को कल्पनाचक्षु से देखने का अभ्यास किया जाता है। पदस्थध्यान में बीजाक्षर, एकाक्षरी मंत्र (ॐ, हूँ आदि) तथा द्वयाक्षरी या अनेकाक्षरी मंत्रों पर भी चिन्तन किया जाता है।
रूपस्थध्यान-रूपयुक्त. तीर्थंकर आदि के रूप, स्वरूप, समवसरण आदि का कल्पनाचक्षु से साधक द्वारा जो ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थध्यान है। ___ रूपातीतध्यान-इस ध्यान में किसी प्रकार पिण्ड, पद या रूप की कल्पना नहीं की जाती, किन्तु निरंजन, निराकार, सिद्धस्वरूप का ध्यान करना रूपातीत ध्यान है। यह ध्यान विकल्प, विचार, कल्पना से शून्य होता है। इस ध्यान में किसी प्रकार का आलम्बन नहीं लिया जाता। इसमें ध्याता, ध्यान और ध्येय के विकल्प मिट जाते हैं। ध्याता और ध्येय ध्यान में एकाकार हो जाते हैं।'
शुक्लध्यान : स्वरूप, भेद और प्रकार ध्यान की सर्वोत्कृष्ट दशा शुक्लध्यान है। मन में से जब विषय-वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, वह पूर्ण विशुद्ध हो जाता है, तब वह पूर्णतया एकाग्र हो जाता है; उसमें स्थिरता इतनी सघन हो जाती है कि उसके शरीर पर कोई प्रहार करता या छेदन-भेदन करता है, फिर भी उसके मन में किंचिन्मात्र भी क्षोभ नहीं होता। भयंकरतम वेदना होने पर भी शुक्लध्यानी उस वेदना को तनिक भी महसूस नहीं करता। वह देहातीत हो जाता है। शुक्लध्यान के मुख्य दो भेद किये गये हैं१. (क) तत्त्वानुशासन १९०-१९१
(ख) प्रवचनसार, गा. ८ २. (क) योगशास्त्र, प्र. ७, श्लो. ८
(ख) 'जैन आचार : स्वरूप और सिद्धान्त' से भाव ग्रहण, पृ. ६०३-६०४ (ग) यत्पदानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते। तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारणैः।।
-योगशास्त्र ८/१ (घ) अर्हतो रूपं समालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते।
-वही ९/७
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