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४१२ कर्मविज्ञान : भाग ७
पिण्डस्थध्यान - पिण्ड का अर्थ शरीर है । एकान्त शान्त पवित्र स्थान में सुखासन से बैठकर पिण्ड यानी शरीर में स्थित आत्मदेव का ध्यान करना पिण्डस्थध्यान है। इसमें शरीरस्थ विशुद्ध आत्मा का चिन्तन किया जाता है । निज शुद्धात्मा का ध्यान करने की विधि का निरूपण पूर्वोक्त ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए। परन्तु इस ध्यान में 'अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यान मुच्यते ' ( दीपशिखा की तरह अपरिस्पन्दमान ज्ञान को ही ध्यान कहा जाता है) इस लक्षण के अनुसार आत्मा के किसी एक गुण या पर्याय का निःस्पन्द चिन्तन करना आवश्यक है । '
इस ध्येय में चित्त को दृढ़तापूर्वक स्थिर करने हेतु पाँच धारणाएँ
आचार्य हेमचन्द्र ने पिण्डस्थध्यान के दौरान ध्येय में चित्त को दृढ़तापूर्वक स्थिर रखने के लिए ५ धारणाएँ बताई हैं - (१) पार्थिवी, (२) आग्नेयी, (३) वायवी, (४) वारुणी, और (५) तत्त्वरूपवती ( या तत्त्वभू) धारणा । पार्थिवी धारणा - स्व-शरीरस्थित या सशरीर आत्मा को पृथ्वी के स्वर्णसम पीतवर्ण की कल्पना के साथ बाँधना पार्थिवी धारणा है। इस धारणा के साथ-साथ पृथ्वी के बीजमंत्र 'सोऽहम्' का अजपाजाप चलना चाहिए । आग्नेयी धारणा - अग्नि के समान रक्तवर्ण की ज्वाला की कल्पना की जाती है। ' हैं' बीज मंत्र है इसका । प्रति पल बढ़ती हुई ज्वाला से आठ कर्मों को भस्म करने की कल्पना करनी चाहिए। इसके पश्चात् वायवी धारणा से तीव्र गति से चलती हुई वायु की कल्पना की जाती है । साधक कल्पना करता है कि आग्नेयी से ८ कर्मों के जलने से बनी हुई राख अनन्त आकाश में उड़ रही है। वायु के बीजाक्षर 'य' का अजपाजाप भी साथ में स्फुरित होना चाहिए। फिर वारुणी धारणा में साधक कल्पना करता है कि आकाश घटाएँ उमड़ रही हैं, तीव्र वृष्टि हो रही है, जिससे मेरी आत्मा पर लगी हुई कर्मरज साफ हो गई है। आत्मा पूर्णतया निर्मल हो गयी है । जल के बीजाक्षर 'प' या 'द' का अजपाजाप साथ-साथ चलना चाहिए।
इसके पश्चात् तत्त्वरूपवती धारणा में प्रवेश करके शून्य आकाश की कल्पना करता है कि मैं आकाश के समान अनन्त एवं निर्लिप्त हूँ । यही मेरी आत्मा का शुद्ध स्वरूप है। इसे आकाशी धारणा भी कहते हैं।' 'तत्त्वानुशासन' में कहा गया है
१. तत्त्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति ९ / २७
२. (क) ज्ञानार्णव ३७/१
(ख) योगशास्त्र, प्र. ७, श्लो. ८
( ग ) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ५९९
(घ) योगशास्त्र ७ / ९
(ङ) धारणा तु क्वचिद् ध्येये चित्तस्य स्थिरबन्धनम् । अभिधान चिन्तामणि कोष १ / ८४
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