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४२६ कर्मविज्ञान : भाग ७
गया है, उसके पीछे भी यही दृष्टिकोण परिलक्षित होता है कि सबमें मुख्य तत्त्व शरीर है। शरीर है, तभी गण, उपकरण, आहार, कर्म, संसार और कषाय आदि उससे सम्बद्ध हैं और उनका ग्रहण और त्याग है। शरीर से जब ममता-मूर्च्छाआसक्ति विसर्जित हो गई तो फिर आहार, उपधि, गण, संसार आदि के प्रति ममता - अहंता का कोई कारण नहीं रह जाता। आचार्य हेमचन्द्र ने कायोत्सर्ग का लक्षण दिया है- “शरीर के ममत्व का त्याग करके दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर शरीर और मन को स्थिर करने, शरीर निरपेक्ष रहने को कायोत्सर्ग कहा गया है। जो खड़े होकर या बैठकर दोनों तरह से किया जा सकता है ।" "
द्रव्य-भाव- कायोत्सर्ग की दृष्टि से चार प्रकार के कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग के द्रव्य-भाव-स्वरूप को समझने के लिए 'मूलाचार' और 'भगवती आराधना' में उसके चार रूपों का निरूपण किया गया है - ( 9 ) उत्थित-उत्थित, (२) उत्थित-निविष्ट, (३) उपविष्ट - उत्थित, और (४) उपविष्ट-उपविष्ट ।
(१) उत्थित - उत्थित - कायोत्सर्ग के लिए खड़ा होने वाला साधक जब द्रव्य (शरीर) के साथ भाव से भी खड़ा हो जाता है; अर्थात् उसका मन ( अन्तश्चैतन्य ) भी खड़ा (जाग्रत) हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह आर्त्त - रौद्रध्यान का त्याग कर धर्म-शुक्लध्यान में रमण करता है, तब उत्थितोत्थित- नामक सर्वोत्कृष्ट कायोत्सर्ग होता है। इसमें सुप्त अन्तरात्मा जाग्रत होकर कर्मों से जूझने के लिए तन कर खड़ा हो जाता है।
'भगवती आराधना' के अनुसार- इसमें द्रव्य, भाव दोनों का उत्थान होने के कारण उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग में उत्थान का प्रकर्ष है, क्योंकि शरीर का खम्भे के समान खड़ा रहना द्रव्योत्थान है और एक ध्येय-वस्तु में ज्ञान का एकाग्र होकर ठहरना भावोत्थान है।
(२) उत्थित - निविष्ट - जब अयोग्य साधक द्रव्य (शरीर) से तो कायोत्सर्ग के लिये खड़ा हो जाता है, किन्तु भाव से गिरा रहता है, अर्थात् आर्त- रौद्रध्यान की परिणति ( चिन्तना) में रत रहता है, तब उत्थित - निविष्ट कायोत्सर्ग होता है। इसमें शरीर के उत्थान से तो उत्थित ( खड़ा ) रहता है, किन्तु आत्मा शुभ परिणामों की उद्गतिरूप उत्थान के अभाव के कारण निविष्ट - उपविष्ट है।
9. (क) 'जैनधर्म में तप' से भाव ग्रहण, पृ. ५१७ (ख) कायस्स विउसग्गो, छट्टो सो परिकित्तिओ । (ग) प्रलम्बितभुजद्वन्द्वमुर्ध्यस्थस्यासितस्य वा । स्थानं कायानपेक्षं यत् कायोत्सर्गः स कीर्तितः ॥
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- उत्तराध्ययन, अ. ३०, गा. ३६
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- योगशास्त्र प्रकाश ४ / १३३
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