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ॐ ३६८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
(धर्म-संघ) का अपनी-अपनी आचार-मर्यादा (कल्प) के अनुसार पूर्वोक्त रूप से तन-मन-वचन से वैयावृत्य (सेवा) करना-साधर्मिक वैयावृत्य है। यद्यपि साधु-साध्वी शरीर से अपनी मर्यादा के अनुरूप श्रावक-श्राविका की वैयावृत्य नहीं कर सकते, तथापि शारीरिक सेवा भी अपवाद मार्ग को छोड़कर नहीं ले-दे सकते हैं। वे श्रावक-श्राविका को विपत्ति, कष्ट, रोग आदि के समय में तथा सामान्य रूपसे धर्म-पालन की प्रेरणा दे सकते हैं, उन्हें धर्मानुरूप मार्गदर्शन दे सकते हैं, श्रावक-श्राविका को संकट के समय अहिंसक ढंग से निवारणोपाय बता सकते हैं, धर्मोपदेश दे सकते, हैं, मंगल पाठ, उपसर्गहरण आदि सात्त्विक पाठ सुना सकते. हैं, साधर्मिक वात्सल्य एवं सहयोग के लिए प्रेरणा दे सकते हैं, उन्हें देव-गुरु-धर्म तथा शास्त्र एवं तत्त्वों पर श्रद्धा एवं सम्यग्दृष्टि की रीति-नीति बता सकते हैं, तत्त्वज्ञान दे सकते हैं, धर्म-शुक्लध्यान में प्रवृत्त कर सकते हैं। श्रावक-श्राविका वर्ग भी साधु-साध्वियों के रोग, उपसर्ग, संकट, मानसिक व्यथा आदि के निवारण में तथा धर्म-प्रचार, धर्म-प्रभावनादि कार्यों में यथायोग्य सहयोग देकर सेवा कर सकते हैं। जो श्रावक-श्राविका वृद्ध, ग्लान, रुग्ण, विपन्न आदि दशा में हैं, उनकी तन-मन-धन और वचन आदि से सम्पन्न एवं सशक्त श्रावक-श्राविकाओं को उन्हें सहयोग और आश्वासन देकर वैयावृत्य करनी चाहिए। . दशविध उत्तम पात्रों की वैयावृत्य से महालाभ
वैयावृत्य के इन दस उत्तम पात्रों की विधिपूर्वक ,वैयावृत्य करने से क्या लाभ होता है? इस सम्बन्ध में 'स्थानांगसूत्र' में स्पष्ट बताया गया है-पाँच स्थानों (प्रकारों) से श्रमण निर्ग्रन्थ महती कर्मनिर्जरा करने वाला तथा महापर्यवसान (संसार का सर्वथा उच्छेद या जन्म-मरण का सदा के लिये अन्त करने वाला) होता है। यथा-अग्लानभाव से आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान साधक की वैयावृत्य करता हुआ। पाँच स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ महती कर्मनिर्जरा करने वाला तथा महापर्यवसान होता है। यथा-शैक्ष (नवदीक्षित), कुल, गण, संघ और साधर्मिक की वैयावृत्य करता हुआ इसी प्रकार 'व्यवहारसूत्र' में भी कहा हैआचार्य आदि दशविध उत्कृष्ट पात्रों की वैयावृत्य करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा का भागी तथा महापर्यवसान वाला होता है।
१. (क) 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. २' से भाव ग्रहण
(ख) 'जैनधर्म में तप' से भाव ग्रहण २. (क) पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं.-अगिलाए
आयरियवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए उवज्झायवेयावच्चं, थेरवेयावच्चं' तवस्सिवेयावच्चं . गिलाणवेयावच्चं करेमाणे। पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे
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