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* ३७४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ * सकती है। यद्यपि वैयावृत्य में बाह्यक्रिया स्पष्ट प्रतीत होती है, किन्तु बहिर्वृत्ति नई होती, इसमें सतत अन्तर्मुखता बनी रहती है। गुणियों के गुण का अनुमोदन एर पोषणरूप यह तप अन्तर्मुखी इसलिए हो जाता है कि आत्म-गुण आभ्यन्तर और अप्रत्यक्ष होते हैं। उनके गुणों के प्रति वृत्ति होते हुए भी वैयावृत्यकर्ता का लक्ष्य आत्म-गुणों के प्रति रहता है। वह काया से सेवाकार्य करता है, वचन से सेव्य गुणी जनों के आत्म-गुणों की प्रशंसा-अनुमोदना करता है और अन्तर्मन आत्म-गुणों के प्रति जोड़ता रहता है। इस अपेक्षा से वैयावृत्यतप में जब तीनों योग एकरूप हे जाते हैं, आत्म-गुणों को वृद्धिंगत करने का वीर्योल्लास (पराक्रम) प्रगट होता है तब वह वैयावृत्य आभ्यन्तरतप रूप में परिणत होता है। ___ यही कारण है कि वैयावृत्य में पर-उपकार करने की भावना नहीं होती, सहजभाव से उपकार होता रहता है, साथ ही वैयावृत्य का अवसर मिलने पर सेव्य के प्रति कृतज्ञता और अन्तर्मन में आह्लाद की अनुभूति होना, अत्यन्त कठिन होने से वैयावृत्य को अतिदुष्कर तप भी कहा गया है क्योंकि इसमें स्वच्छन्दता, लोकैषणा, यशकीर्ति की प्राप्ति तथा सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देना एवं अपनी इच्छाओं का निरोध करना पड़ता है। सेव्य की इच्छा, साता और अनुकूलता को ही प्रधानता देनी होती है। वैयावृत्यतप सामान्य आत्मा को परमात्मपद प्राप्त करा देता है ___ वस्तुतः जो सेवा (वैयावृत्य) करता है, उसमें चाहे अन्य कोई विशिष्ट गुण हो या न हो, किन्तु यदि उसे पूर्वोक्त प्रकार से समर्पितवृत्ति से, आत्मलक्ष्यी दृष्टि से वैयावृत्य का विशेष गुण है तो वह आगमों की दृष्टि से उस आत्मा को परमात्मा बना सकती है, जिनकी आत्म-शुद्धि उपवासादि बाह्य तपश्चरणों से होती है, उतनी ही शुद्धि वैयावृत्य में तल्लीन साधक के हो सकती है। इसीलिए कहा गया थापूर्वोक्त उत्कृष्ट वैयावृत्य पात्रों की वैयावृत्य से साधक महानिर्जरा और महापर्यवसान (परम मुक्ति-सर्वकर्ममुक्ति) प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वैयावृत्य सर्वकर्ममुक्तिदायिनी है।
इसलिए वैयावृत्य (सेवा) का महत्त्व दूसरे तपों से कम नहीं है। दूसरों की वैयावृत्य करना अपना ही कर्तव्य-दायित्त्व या कार्य है। इसमें सेवा कराने वाले को क्षणिक लाभ है, उसे तत्काल साता पहुँच जाती है, मगर वास्तविक लाभ, कर्मों की निर्जरा, महानिर्जरा अथवा पुण्यवृद्धि का लाभ तो सेवा (वैयावृत्य) करने वाले को ही मिलता है। जिस कार्य से तीर्थंकरपद, मुक्ति और अनन्त ऐश्वर्य का लाभ स्वयं (सेवाकर्ता) को मिलता है, वह महान् कार्य अपना ही मानना चाहिए, वह एक प्रकार से अपनी (आत्मा की) ही सेवा है; अपने आप को ही महान् लाभ है।
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