________________
स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति
विनय, वैयावृत्य के बाद स्वाध्याय, ध्यान का निर्देश क्यों ? विनय और वैयावृत्यतप द्वारा अहंत्व और ममत्व का विसर्जन करने से जो आत्म-शुद्धि हो जाती है, उसका निरीक्षण, परीक्षण करने, आत्म-शुद्धि में चित्त को, अन्तर्मन को स्थिर करने हेतु क्रमशः स्वाध्याय और ध्यान-तप का निर्देश जैनागमों में किया गया है और अन्त में छठे आभ्यन्तरतप-व्युत्सर्ग द्वारा अन्तरात्मा में जो भी कषायों, विषयों के प्रति राग-द्वेष, काम, मोह आदि विकारों का कूड़ा-कचरा बचा हुआ रह गया हो, उसे प्रबल संवेग, निर्वेद आदि के माध्यम से व्युत्सर्गतप द्वारा बाहर निकालने का निर्देश किया गया है। ___ सर्वप्रथम स्वाध्यायतप को समझना है कि उसके द्वारा कैसे आत्मा में निहित कर्ममलों का निष्कासन करने का चिन्तन-मनन-निदिध्यासन करना है?
स्वाध्याय : अन्दर का चेहरा देखने के लिए दर्पण है स्वाध्याय एक दर्पण है। मनुष्य दर्पण में अपना चेहरा देखकर उस पर लगी हुई कालिमा, जमी हुई धूल, मैल आदि को जान लेता है, फिर उसे दूर करने का प्रयास करता है, इसी प्रकार स्वाध्यायरूपी दर्पण में सम्यग्दृष्टि मनुष्य गुण-दोषों, अच्छाइयों-बुराइयों, अपनी कमजोरियों-मजबूरियों आदि को निहारकर दोषों, बुराइयों, कमजोरियों और मजबूरियों आदि को बाहर निकालने हेतु चिन्तन-मनन कर लेता है।
· इसीलिए प्रत्येक साधक की चर्या में रात्रि और दिन के चार-चार प्रहरों में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और द्वितीय प्रहर में ध्यान करने का निर्देश किया गया है।'
स्वाध्याय आन्तरिक तप क्यों है ? स्वाध्याय मानसिक भूमिका पर होता है। मन के तीन कार्य हैं-मनन, स्मरण और तत्त्वविचार अथवा शास्त्रीय दृष्टि से अवग्रहा, ईहा, अवाय और धारणा; ये १. पढमं पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई। -उत्तराध्ययन, अ.२६, गा. १२,१८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org