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ॐ निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ॐ ३७५ ॐ
- भगवान की शारीरिक सेवा से भी ग्लान की सेवा बढ़कर है ___एक प्राचीन आचार्य ने गणधर गौतम और भगवान महावीर का संवाद प्रस्तुत केया है। भगवान से पछा गया-एक साधक आपकी सेवा में करबद्ध होकर उपस्थित रहता है और एक साधक रुग्ण, अशक्त, वृद्ध आदि साधकों की सेवा करता है, इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है, कौन धन्य है ? उत्तर में भगवान महावीर ने कहा-“जे गिलाणं पडियरइ, से धन्ने।''-वही वास्तव में धन्यवाद का पात्र है, जो ग्लान-अशक्त की सेवा करता है। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा-“मेरी शरीर-सेवा का इतना महत्त्व नहीं, जितना कि मेरी आज्ञा की आराधना करने का है।" “आणाराहणं खु जिणाणं।"-जिनेश्वरों की आज्ञा की आराधना-पालना करना ही उनकी तथा धर्म-संघ की सबसे बड़ी सेवा है।'
आत्म-वैयावृत्य और पर-वैयावृत्य से सम्बन्धित आठ शिक्षाएँ भगवान महावीर ने साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओं को जो आठ अमर शिक्षाएँ दी हैं, वे सीधी आज्ञारूप में तो नहीं हैं, प्रेरणारूप में अवश्य हैं, कर्मक्षय करने के लिए सरल उपायरूप हैं उनमें से चार शिक्षाएँ तो वैयावृत्य के लिए अभ्युद्यत रहने के सम्बन्ध में हैं
(१) असंगृहीत (अनाश्रित, असहाय या निराधार) साधकों (साधु-श्रावकों) को सहायता, सहयोग एवं आश्रय देने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए।
(२) शैक्ष (नवदीक्षित साधु या साध्वी) को आचारगोचर का सम्यक् बोध कराने के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए।
(३) ग्लान (रुग्ण या अशक्ति) की अग्लानभाव से वैयावृत्य करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। - (४) साधर्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न होने पर-ये मेरे साधर्मिक (चतुर्विध संघ) कैसे अपशब्द, कलह और तू-तू मैं-मैं से रहित हों, ऐसा विचार करके लिप्सा, स्वार्थ और अपेक्षा से रहित होकर किसी का पक्षपात न करके माध्यस्थभाव को स्वीकार उसे उपशान्त करने के लिए अभ्युत्थित रहना चाहिए। १. (क) असंगिहीत परिजणस्स संगिण्हणताए अब्भुट्टेयव्वं भवति; सेहं आयार-गोयरं गाहणताए
अब्भुट्ठयव्वं भवति; गिलाणस्स अगिलाए वैयावच्चकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति; साहम्मियाणमधिकरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सितो अपक्खगाही मज्झत्थभावभूते कहं णु साहम्मिया अप्पसद्दा, अप्पझंझा, अप्पतुमंतुमा ? उवसामणयाए अब्भुढेयव्वं भवति।
___ -स्थानांग, स्था. ८, सू. १११ (ख) असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणताए सुयाणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए,
: - पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिंचणयाए विसोहणयाए; नवाणं कम्माणं संजमेणमकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति।
-वही, स्था. ८, सू. १११
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