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निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ३७१
आत्मौपम्यभाव से करते थे और सुबाहु मुनि आहार, पानी, औषध आदि द्वारा उनकी सेवा (वैयावृत्य) करके साता पहुँचाते थे तथा जो भी रुग्ण, ग्लान, वृद्ध एवं अशक्त साधु होते, उनकी परिचर्या सेवा-शुश्रूषा अम्लानभाव से करते थे। इस कारण दोनों मुनियों की सर्वत्र प्रशंसा एवं प्रसिद्धि होने लगी । परन्तु दोनों मुनि निरहंकार होकर अग्लानभाव से, आत्मौपम्य दृष्टि से सबकी वैयावृत्य करते थे । इस वैयावृत्यतप की साधना के फलस्वरूप पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों की निर्जरा करके बाहु मुनि ने चक्रवर्तीपद के योग्य शुभ कर्म उपार्जित किये और सुबाहु मुनि ने वैयावृत्य की साधना द्वारा लोकोत्तर दिव्य बाहुबल प्राप्त करने योग्य शुभ कर्म उपार्जित किये।
निष्कर्ष यह है कि तीर्थंकरपद, चक्रवर्तीपद एवं लोकोत्तर बल, वैभव आदि की प्राप्ति का मुख्य कारण वैयावृत्यतप की साधना है । '
मगध देश के नन्दीग्राम में एक दरिद्र ब्राह्मण पिता और सोमिला माता का पुत्र था-नन्दीषेण। ठिगने कदं का, मोटे पेट वाला कालाकलूटा था वह। बचपन में ही माता-पिता के मर जाने पर वह मामा के यहाँ अनादरपूर्वक रहने लगा। जवान होने पर मामा ने उसे अपनी ७ लड़कियों में से किसी के साथ विवाह का आश्वासन देने के बावजूद सातों में से एक भी उस कुरूप और बेडोल नंदीषेण के साथ विवाह करने को तैयार नहीं हुई । फलतः अपने कुरूप, अपमानित और बोझरूप जीवन को लेकर जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है, ऐसा सोचकर वह पर्वत से गिरकर अपने जीवन का अन्त करने को उद्यत ही था कि एक शान्तमूर्ति मुनिवर ने कहा- “ ठहरो वत्स ! शान्त होओ। क्यों ऐसे अनमोल 1. देवदुर्लभ मानव जीवन का अन्त करना चाहते हो ? इसका यों ही अन्त करने से तो पाप होगा, तुम्हारा दुःख दूर न होगा, किन्तु इसे तप, संयम में लगा देने से यह सार्थक होगा, दुःख के कारणभूत अशुभ कर्मों का क्षय होगा, आत्मिक-सुख प्राप्त होगा ।..
नंदीषेण ने कहा- “भगवन् ! मानव-जीवन कहाँ है अनमोल ? मेरा कुरूप वेडोल शरीर, बुद्धिमन्दता तथा समाज, घर, परिवार आदि सबसे तिरस्कृत अप्रिय जीवन कैसे अनमोल है ?"
मुनिराज बोले-- " सुरूपता - कुरूपता के गज से अथवा स्थूलदृष्टि लोगों के तिरस्कार-सत्कार से मानव जीवन की अमूल्यता का मूल्यांकन नहीं होता। इनसे अनमोल मानव-जीवन में कोई रुकावट नहीं आती। अगर ज्ञान, दर्शन, चारित्रतप आदि धर्म में सम्यक् पुरुषार्थ किया जाए, अपनी शक्तियों का सम्यग्ज्ञानपूर्वक
१. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र १/१/९०८' से भाव ग्रहण
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