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* ३५६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
उपचारविनय में जो पाँचवाँ मोक्षविनय बताया है, उसे लोकोत्तर उपचारविनय में गतार्थ कर लेना चाहिए। वास्तव में ये पूर्वोक्त चार वास्तविक विनय नहीं हैं, विनय का अभिनय, विनयाभास या चापलूसी जैसे हैं, क्योंकि ये कर्मक्षय के कारण नहीं हैं। विनय : धर्मरूपी वृक्ष का मूल, मोक्षरूप फल का दाता
विनय का फल बताते हुए एक आचार्य ने कहा है-"ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने से इसे विनय कहा जाता है। यह मोक्षरूपी फल को देने वाले धर्मरूपी वृक्ष का मूल है।" 'दशवैकालिकसूत्र' में कहां है-“धर्म का मूल विनय है, जिससे सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्षफल प्राप्त होता है।"२ वस्तुतः आत्मकल्याण, ज्ञान-प्राप्ति एवं अहंकार-मुक्ति के लिए गुरु आदि का विनय किया जाता है। मोक्ष-प्राप्ति (सर्वकर्ममुक्ति) के उद्देश्य से किया जाने वाला विनय ही वास्तविक विनय है, क्योंकि उसमें उद्देश्य पवित्र है। विनय : समस्त गुणों का मूलाधार; अविनय : दोषों का भण्डार
सद्गुण एवं सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनुष्य को विनयशील बनना आवश्यक है। कहा भी है-“विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे।"-सभी गुण विनय के अधीन हैं। विनीत के ही जीवन में विधाएँ सुशोभित होती हैं, इसलिए कहा है"सकलगुणभूषा च विनयः।''-'स्थानांगसूत्र' में कहा है-अविनीत को न तो विद्याएँ फलित होती हैं और न ही वह विद्या देने, शास्त्र वाचना देने के योग्य हैं। वहाँ कहा गया है-“तीन व्यक्ति वाचना देने (पढ़ाने) के अयोग्य हैं, जैसे कि अविनीत, रसलोलुपी और बार-बार कलह करने वाला। विनय का महिमागान करते हुए 'आचार्य हरिभद्र' ने कहा है-“विनय जिन-शासन का मूल है। विनीत ही संयम की आराधना कर सकता है। जिसमें विनय का गुण नहीं है, वह क्या धर्म और तप की आराधना करेगा? विनय से युक्त स्वछन्दाचारी धर्म, तप और संयम की आराधना नहीं कर सकता।"
इस प्रकार आत्म-संयम, अनुशासन और नम्रतायुक्त सद्व्यवहार; इन तीन मुख्य अर्थों में विनय कर्मों का संवर और निर्जरा का आसान और प्रबल कारण
१. लोगोवयार-विणओ अत्थनिमित्तं च कामहेउं च।
भयविणय-मुक्खविणओ, विणओ खलु पंचहा होई॥ -विशेषावश्यक भाष्य ३१० २. (क) (ज्ञानावरणीयादि) कर्मणां द्राग् विनयनाद् विनयो विदुषांमतः। अपवर्ग-फलाढ्यस्य मूलं धर्मतरोदेयम्॥
--एक आचार्य (ख) एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो से मोक्खो।
-दशवकालिक ९/२/२
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