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निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ३५३
अनाशातनाविनय का स्वरूप और आचरण
'समवायांग' और 'दशाश्रुतस्कन्ध' में गुरुजनों के प्रति आशातना के ३३ भेद बताये गये हैं। गुरु शब्द भी यहाँ केवल एक दीक्षा - गुरु के अर्थ में नहीं, किन्तु जितने भी चारित्र गुणों में आगे बढ़े हुए हैं, गुणाधिक हैं, रत्नाधिक हैं अथवा दीक्षाज्येष्ठ हैं, वे सब गुरु शब्द में गतार्थ हैं अथवा गुरु शब्द को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं - स्वगुरु (जितने भी गुणरत्नों में अधिक हैं, वे स्वगुरु हैं), संघगुरु (धर्म-संघ के आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि हैं, वे संघगुरु हैं) और विश्वगुरु ( अरिहन्त, सिद्ध, केवलज्ञानी या प्रत्येक बुद्ध हैं, वे विश्ववन्द्यगुरु हैं ) । ऐसे गुरुजनों के साथ चलते, उठते बैठते, सोते, उठते, बोलते तथा आहार करते समय, यहाँ तक कि दैनिक जीवन के प्रत्येक व्यवहार में उनकी ज्येष्ठता, श्रेष्ठता, पद-प्रतिष्ठा एवं मान-मर्यादा का ध्यान रखना, उनका आदर करते हुए सम्मानजनक मृदु, नम्र व्यवहार करना, ३३ प्रकार की आशातना से दूर रहना अनाशातनाविनय है । '
'आवश्यकसूत्र' में महाव्रती साधक के लिए ३३ आशातनाएँ बताई हैं, अरिहन्त की आशातना से लेकर श्रुत ( शास्त्रज्ञान की १४) आशातना तक । यहाँ आशातना का अर्थ बहुत व्यापक है। सम्यग्दर्शनादि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय और उनकी शातना = खण्डना जिस प्रवृत्ति से हो, उसे आशातना कहते हैं । आशय यह है कि संसार के प्रत्येक गुणाधिक व्यक्ति तथा संयम में या आत्म- गुणों की प्राप्ति में सहायक वस्तुओं की अवहेलना, अनादर, अवमानना करना, उनके अस्तित्व एवं महत्त्व को नकारना, उन्हें नगण्य या तुच्छ मानना आशातना है । वे : ३३ आशातनाएँ इस प्रकार हैं- अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव-देवी, इहलोक - परलोक, केवलि-प्ररूपित धर्म, देव, मनुष्य- असुरों सहित समग्र लोक, समस्त प्राण (तीन विकलेन्द्रिय), भूत (वनस्पतिकाय), जीव (समस्त पंचेन्द्रिय जीव) और सत्त्व (पृथ्वीकायिकादि शेष चार स्थावर. जीव) तथैव काल, श्रुत (ज्ञान), श्रुतदेवता, वाचनाचार्य एवं १४ ज्ञान ( आगमज्ञान) की आशातना मिलाकर कुल ३३ होती हैं । अनाशातनाविनय के लिए साधक को इन ३३ प्रकार की आशातनारूप अतिचारों से बचना होता है ।
(३) चारित्रविनय-सामायिक आदि पंचविध चारित्र के प्रति श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति रखना, काया से उनका निरतिचार, आचरण, पालन करना, चारित्र में जनता
१. विशेष जानकारी के लिए देखें- दशाश्रुतस्कन्धसूत्र तथा श्रमणसूत्र का परिशिष्ट, पृ. ४७६ २. (क) देखें - श्रमणसूत्र में पडिक्कमामि तेत्तीसाए आसायणाहिं आदि पाठ
'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि जी ) में तैंतीस आशातना सम्बन्धी विवेचन, पृ.
३००-३०८
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