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* प्रायश्चित्त: आत्म- -शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ३३७
चिन्ता, विषाद, आवेग, क्रोधादि आवेश, तनाव आदि मानसिक विकृतियाँ होती हैं । स्पष्ट शब्दों में कहें तो वे मनोरोग होते हैं। इन मनोरोगों का निवारण मनोवैज्ञानिक चिकित्सक ही कर पाते हैं । '
मनोवैज्ञानिक चिकित्सक भी मनोरोगी से सब कुछ खुलवाता है
मनोवैज्ञानिक चिकित्सक के पास ऐसा मनोकायिक रोगी जब रोग निवारणार्थ आता है, तो वह उसके हृदय में आशा, विश्वास, आश्वासन के द्वारा धैर्य जमाकर फिर उसे अपने जीवन में आये हुए उतार-चढ़ावों का विवरण दिल खोलकर कह देने को कहता है। वह उसे विश्वास दिलाता है कि “मैं तुम्हारी गुप्त से गुप्त बात किसी के सामने प्रगट नहीं करूँगा, जो कुछ हुआ है, जैसे हुआ है, अपनी स्मृति पर जोर लगाकर कहते रहो।" बीच-बीच में वह दूसरी मनोरंजक बातों से रोगी का दिल बहलाकर फिर पूछता है - " और कहो । जो कुछ याद आये, कहते रहो । " आश्वस्त और विश्वस्त रोगी जो कुछ याद आता जाता है, कहता चला जाता है । मनश्चिकित्सक बार-बार सौम्य भाषा में उसे कहता है - "देखो भाई ! कुछ भी • छिपाना मत। लोग क्या कहेंगे? मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी ! लोगों में मेरे प्रति अविश्वास, अश्रद्धा का भाव बढ़ जायेगा ! इन बातों की तनिक भी परवाह मत करो। बच्चे की भाँति मेरे सामने सब कुछ प्रगट कर दो।" तभी तुम्हारे रोग . का सही निदान करके उसे मिटाने में मुझे सफलता मिलेगी, तुम्हें भी शान्ति और स्वस्थता प्राप्त हो सकेगी।
थॉम्पसन का मनोरोग डॉ. ग्रोसमैन ने उनकी मानसिक चिकित्सा करके मिटाया
'ए टेक्स्ट बुक ऑफ फिजियोलोजिकल सायकोलोजी' के लेखक एस. पी. .ग्रोसमैन ने एक ऐसे उदरशूल के रोगी का जिक्र किया है, जिसे प्रतिदिन अपराह्न में बारह से एक बजे तक में ही भयंकर पीड़ा होती थी । उस समय उसका सारा शरीर पीला पड़ जाता था । आँखों के कोर काले पड़ जाते; अपानवायु रुक जाती और जीवन-मरण जैसा संकट उत्पन्न हो जाता। उसने अनेक डॉक्टरों से इलाज करवाया, परन्तु रत्ती भर भी आराम न मिला। अन्त में उस व्यक्ति ने, जिसका नाम था- विन्सेंट थॉम्पसन, जो अमेरिका के बड़े उद्योगपति एवं धनाढ्य हैं, वहाँ के मनश्चिकित्सक डॉ. ग्रोसमैन से भेंट की । उसे अपनी व्याधि की कष्ट कथा सुनाई। डॉ. ग्रोसमैन द्वारा कई तरह से कुरेद- कुरेदकर पूछने पर भी वह किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच सके। आखिर उन्होंने उसकी पत्नी से पूछताछ की। उससे इस बात
१. 'जैनभारती, जून १९९१ में प्रकाशित प्रायश्चित्त चिकित्सा से भाव ग्रहण, पृ. ३६५
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