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* प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय 8 ३१९ 8
उसी प्रकार नष्ट कर रहा हूँ, जिस प्रकार कुशल वैद्य मंत्र प्रयोगों द्वारा अंग-अंग में व्याप्त समस्त विष को दूर कर देता है तथा उन दोषों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करता हूँ।
पापनाश से चित्त-शुद्धि के लिए चार प्रक्रियाएँ स्पष्ट है-पापनाश से आत्म-शुद्धिरूप प्रायश्चित्त के लिए यहाँ चार प्रक्रियाएँ मुख्यतया बताई हैं-(१) आलोचना, (२) निन्दना, (३) गर्हणा, तथा (४) प्रतिक्रमण। आलोचना शब्द अपने में कई अर्थों को समेटे हुए है-अपने पापों, दोषों, भूलों, अपराधों या त्रुटियों को स्वयं समस्त गृहीत व्रतों-नियमों-आचारों पर अन्तर्दृष्टि फिराते हुए देखना, ढूँढ़ना, टटोलना तथा अपनी गलती (अपराध या दोष) को स्वयं महसूस करना, अपनी भूलों को कबूल करना, अपनी भूल को भूल समझकर स्वीकारना तथा अपने नियम, व्रत, आचार, संयम आदि में जो कोई दोष या अतिचार लग गया हो, उसे आप्त गुरुजन के समक्ष निष्कपट मन से प्रगट कर देना, दोष को प्रकटरूप से स्वीकार कर लेना।
.. आलोचना के दो रूप और आत्मालोचना की प्रक्रिया वैसे तो आलोचना के अनेक प्रकार हैं, किन्तु उसके प्रयोग के दो रूप मुख्य हैं-आत्मालोचना और गुरु आदि विश्वस्त के समक्ष आलोचना। गुरु आदि का योग न हो, वहाँ निष्पक्ष होकर आलोचना पाठ या प्रतिक्रमण द्वारा अपने दोषों-पापों-अपराधों का निरीक्षण-परीक्षण करना और उससे निवृत्त होना। आत्मालोचना में प्रतिक्रमण और निन्दना (पश्चात्ताप) दोनों का समावेश है। आलोचना का दूसरा रूप है-जो भी, जैसे भी पाप-दोष लगे हों, उन्हें निष्कपट होकर सरलभाव से गुरु या महान् के समक्ष प्रगट कर देना। • ' आत्मालोचन की प्रक्रिया आवश्यक (वर्तमान में प्रचलित ‘प्रतिक्रमण') के समय होती है। साधक दिन, रात, पक्ष या चातुर्मास आदि में अपने से प्रमादवश जाने-अजाने हुई भूलों, दोषों, अपराधों, अतिचारों या विराधनाओं को स्वयं आत्म-निरीक्षण करके टटोलता है, उसके पश्चात् स्वयं अपनी गलती को गलती महसूस करता है और जहाँ-जहाँ जिस-जिस व्रत या नियम में भूल, दोष या गलती · हुई हो, उससे वापस लौटता है, प्रतिक्रमण करता है, उस दोष या अपराध के प्रति
. १. (क) विनिन्दनाऽऽलोचन-गर्हणैरहं, मनो-वचः-काय-कषाय-निर्मितम्। निहन्मि पापं भवदुःख-कारणं, भिषग् विषं मंत्रगुणैरिवाखिलम्॥
-सामायिक पाठ, श्लो. ७ (ख) प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये।
-वही, श्लो. ८
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